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________________ अध्याय 31 ] भित्ति-चित्र हुआ है, जिससे यह संकेत मिलता है कि यह पटली और संभवतः वह पाण्डुलिपि, जिसके लिए यह पटली बनायी थी, श्री विजयसिंहाचार्य को उनके किसी अनुयायी द्वारा तैयार कराकर भेंट की गयी थी। विजयसिंहाचार्य एक प्रसिद्ध जैनाचार्य थे जो गुजरात के सिद्धराज जयसिंह के शासनकालीन (सन् १०९४-११४४) एवं श्री-हेमचंद-सूरि तथा श्री-वादिदेव-सूरि जैसे विद्वान् जैनाचार्यों के समसामयिक थे। भाषागत या ऐसा कोई अन्य कारण प्रकाश में नहीं है जिसके आधार पर इस पटली को दसवीं शताब्दी के मध्य से पूर्व का अर्थात् श्री विजयसिंहाचार्य के समय से पूर्व का चित्रित माना जा सके, अथवा इस पटली को पहले का चित्रित माना जाये और साथ में यह भी कि यह पटली उनके पास उस अवसर पर आयी हो जिसका उल्लेख इस पटली के लेख में है। यह लेख-युक्त पटली शैलीगत विशेषताओं के आधार पर अन्य पटलियों के, जिनमें हाथी, पौराणिक शेर एवं पशु-पक्षियों के चित्र हैं, रचनाकाल को निर्धारित करने के लिए मूल्यवान सामग्री प्रस्तुत करती है। क्योंकि यह पटली बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की है इसलिए यह पटली जैसलमेर-भण्डार की अधिकांशतः आलंकारिक पटलियों के रचनाकाल, अपने समकालीन या इससे पूर्व का, (जो अधिक से अधिक ग्यारहवीं के उत्तरार्ध का समय है) निर्धारित करने का एक अच्छा आधार प्रदान करती है । यद्यपि, इनमें से कुछ पटलियों का समय इससे बहुत पहले का अर्थात् दसवीं शताब्दी सुझाया गया है, परंतु सावधानीपूर्वक किया गया शैलीगत विश्लेषण इस सुझाव का समर्थन नहीं करता। यथार्थतः यदि यह स्वीकार्य हो कि ताड़पत्रीय पाण्डलिपियों के चित्रित कराने तथा उनके लिए चित्रित पटलियों के निर्माण कराने की प्रेरणा जनों ने बौद्धों की प्रचलित परंपरा से ग्रहण की है तब भी यह परंपरा स्वयं में ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य से पूर्व की नहीं बैठती। जैन पाण्डुलिपि-चित्रों के काल-निर्धारण की यह विधि भी भ्रामक सिद्ध होगी यदि हम इन चित्रों में अंकित प्राकृतियों की समानता गुजरात और राजस्थान की प्रतिमाओं में देखने का प्रयास करें और वह भी जबकि हम इन प्रतिमाओं को इन चित्रों के लिए विशुद्ध प्रतिमान मानकर चलें । यद्यपि इस विधि का उपयोग किया जा सकता है लेकिन वह भी एक सीमित क्षेत्र तक; और यह ध्यान में रखते हुए ही कि किसी प्रदेश विशेष की चित्र और मूर्तिकला एक ही काल से अनिवार्यतः संबंधित नहीं होती यद्यपि उनमें कुछ समानताएं हो सकती हैं। इस तथ्य को सत्यापित करने के लिए अमरावती और नागार्जुनी कौंडा की मूर्तिकला के उदाहरण हमारे समक्ष हैं । अमरावती और नागार्जुनी कौंडा के मूर्ति-शिल्प अंजता के वाकाटक चित्रों के समानांतर हैं, लेकिन इसके उपरांत भी आगे की दो शताब्दियों के मध्य ये चित्र मूर्ति-शिल्पों से नितांत भिन्न हो गये। इसी प्रकार मुनि पुण्यविजयजी के संग्रह की क्षतिग्रस्त एक पटली (चित्र २७० क), जिसपर महावीर का चित्र अंकित है, शैलीगत तुलना के आधार पर जिनदत्त-सरि की पटलियों से किसी प्रकार भी भिन्न नहीं 1 मुनि पुण्यविजय और शाह, पूर्वोक्त, पृ 41, पाद-टिप्पणी 12. यहां पर इस पटली का रचनाकाल इससे पहले का सुझाया गया है. 2 पूर्वोक्त, 141; हमारे द्वारा सुझाये मये अनुमानित समय से भी पूर्व का समय शाह इस पटली (रंगीन चित्र 23 क, ख, ग, घ) को दे सकते है. 3 पूर्वोक्त, चित्र 23 (रंगीन). 407 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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