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________________ अध्याय 31] भित्ति-चित्र चित्रण में शैलीगतता और रीतिबद्धता हो सकती है। लेकिन चित्रों में अजंता और बाद की चित्रणपरंपरा के निर्वाह किये जाने की यह अंतिम ही झलक है क्योंकि इन चित्रों के बाद मागे के चित्रों में यह झलक पुनः नहीं देखी गयी। इस पटली में अंकित दाढ़ी वाले श्रावक का चित्र ऐलोरा के कैलास-मंदिर के कुछ भित्ति-चित्रों में चित्रित ऐसी ही दाढ़ी वाले व्यक्तियों के चित्रों से बहुत छ मिलता-जुलता है। ये भित्ति-चित्र सामान्यतः बारहवीं शताब्दी के बताये जाते हैं लेकिन ये इससे कुछ पूर्व के भी हो सकते हैं। ये भित्ति-चित्र एक परमार शासक के शासनकाल में निर्मित माने जाते हैं लेकिन इस विषय में अभी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। अत: यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि अजंता की कला-परंपरा और उसी प्रकार उसकी अंतरकालीन ऐलोरा की चित्रण-विधि गुजरात में निरंतर प्रचलित रही, यद्यपि उसमें एक विकसित शैलीबद्ध रूपाकार स्थान ग्रहण करते गये हैं। इसके आधार पर हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि जैन मंदिरों के वे प्रारंभिक पटक पौर चित्र जिनके हमें आठवीं एवं नौवीं शताब्दी में उपस्थिति के साहित्यिक साक्ष्य ही उपलब्ध होते हैं, तीव्रता से लुप्त होती हुई शैली में चित्रित किये गये होंगे। लंबी-लंबी, कानों तक विस्तृत आँखों के चित्रांकन की परंपरा, जो जिनदत्त-सूरि की पटली में देखी गयी है, वह प्रथम बार अजंता की गुफा-२ के भित्ति-चित्र में पायी गयी है। लेकिन इस प्रकार की आँखों का चित्रण इस गुफा की कुछ ही प्राकृतियों में पाया गया है। अजंता के बाद यह परंपरा पूनः ऐलोरा के कैलास-मंदिर के भित्ति-चित्रों। गयी है। विस्फारित आँखों के चित्रण को जैन कला की एक प्रमुख विशेषता माना जाता है। विस्फारित आँखों के चित्रण की इस असाधारण प्रवृत्ति के एक से अधिक कारण बताये जाते हैं, जिनमें से जैन विद्वान् मुनि जिनविजय द्वारा सुझायी गयी संभावना विशेष रूप से मान्य प्रतीत होती है। उनका अनुमान है कि किसी विशेष संप्रदाय या चित्रकार-समूह ने अपने चित्रों में यह विशेषता विकसित कर ली थी कि वे अपने चित्रों में देवी-देवताओं या मानव-मुखाकृति के पार्श्व-चित्र में एक ही प्रांख अंकित करते थे। एक ही आँख के अंकित किये जाने के फलस्वरूप यह आँख विस्तत प्राकार की होती थी। इस विषय पर और भी अनेक संभावनाएँ हैं। दो अन्य पटलियाँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं जिनपर जिनदत्त-सूरि और उनके शिष्यों के चित्र अंकित हैं। ये पटलियाँ भी जिनदत्त-सूरि की समकालीन हैं। जिनदत्त-सूरि की समस्त पटलियाँ निश्चित रूप से राजस्थान में ही चित्रित होनी चाहिए और उनका समय सन् ११२२ से ११५४ के मध्य रहा होना चाहिए। इन समस्त पटलियों के किनारों पर पत्र-पुष्प का एक विशेष प्रकार की अलंकरण है तथा रंग-योजना की दृष्टि से ये अत्यंत संपन्न हैं (रंगीन चित्र २२)। अजंता-शैली के चित्रण की परंपरा इन प्रारंभिक पटलियों के मात्र नारी-प्राकृति-चित्रण में ही नहीं है, इस काल की ऐसी अनेक पटलियाँ हैं जिनपर लता-वल्लरियों के अलंकरण हैं। इन 1 रिपोर्ट प्रॉफ़ दि माक्यॉलॉयिकल सर्वे प्रॉफ़ हैदराबाद. 1927-28. चित्र डी और ई. 2 भाटिया (पी). दि परमाराज. 1967. नई दिल्ली. पृ 350. 3 अपभ्रंश-काव्यत्रयी. गायकवाड़ प्रोरिएण्टल सीरीज, 37, 1927; में एक पटली प्रकाशित है तथा दूसरी पटली जर्नल मॉफ इण्डियन सोसाइटी प्रॉफ प्रोरिएण्टल आर्ट, मार्च 1966 के चित्र 22 में प्रकाशित है. 405 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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