________________
अध्याय 37 ]
विदेशों में संग्रहालय
अमरीको संग्रहालयों में कुछ जैन कांस्य-प्रतिमाएं
अमरीकी संग्रहालयों में अनेक जैन कांस्य-प्रतिमाएं हैं जिनपर यदि पूर्ण रूप से विचार किया जाये तो इन प्रतिमाओं में कुल मिलाकर उतनी अधिक विविधता नहीं पायी जाती जितनी भारतीय संग्रहालयों की प्रतिमाओं में पायी जाती है। फिर भी यहाँ ऐसी अनेक प्रतिमाएं हैं जो जैन कला के अध्ययन की दृष्टि से रोचक हैं तथा कुछ ऐसी भी प्रतिमाएँ हैं जो विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । हम यहाँ इस प्रकार की ही प्रतिमाओं की चर्चा करेंगे।
__ अमरीका के एक संग्रहालय में जो सबसे प्रारंभिक ज्ञातव्य कांस्य-प्रतिमा है वह तीर्थंकर पार्श्वनाथ की है (चित्र ३२७ क) । पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता प्रमाणित तो की जा सकती है, फिर भी इस प्रतिमा में उनके कलात्मक अंकनों को उनका व्यक्ति-चित्रण नहीं माना जा सकता। इस प्रतिमा में उन्हें एक बहुफणी नाग-छत्र के नीचे खड़े हुए दर्शाया गया है जो उनके एक आदर्शात्मक चित्रांकन का प्रस्तुतीकरण है। बहुत संभव है कि अब अमरीका में स्थित यह प्रतिमा छठी शताब्दी की हो, लेकिन यह प्रतिमा के उस प्रकार को श्रंखलाबद्ध करती है जो बहुत पहले एक रूढिबद्ध रूप ग्रहण कर गयी होगी। बंबई के प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम में भी पार्श्वनाथ की एक कांस्य-प्रतिमा है जिसके विषय में यह दावा किया जाता है कि यह प्रतिमा ईसा-पर्व तीसरी-चौथी शताब्दी की रचना है। इस प्रतिमा के लिए इतनी प्रारंभिक तिथि को चाहे हम स्वीकार करें या न करें परंतु यह निश्चित है कि अमरीकी संग्रहालय की जिस प्रतिमा की चर्चा हम कर रहे हैं उसके लिए इस प्रतिमा ने आदि रूप का कार्य किया होगा । इसमें एक आश्चर्यजनक दुराग्रह यह है कि इस प्राकृति का जो मूलभूत प्रकार है वह आगे की कई शताब्दियों तक तीर्थंकर-प्रतिमाओं के अंकन के लिए निरंतर प्रयुक्त होता रहा है (चित्र ३२७ ख)। वास्तविकता यह है कि भारतीय सौंदर्य-शास्त्रीय परंपराओं में जैन परंपरा सर्वाधिक पुरातनवादी रही है।
आज अमरीकी संग्रहालयों में जितनी भी जैन कांस्य-प्रतिमाएं सुरक्षित हैं संभवतः उन सबमें सबसे अधिक सुंदर प्रतिमा लॉस एंजिल्स काउण्ट्री म्यूजियम ऑफ आर्ट में है (चित्र ३२८ क) । इस प्रतिमा का रचना-काल तो हमें निश्चित रूप से ज्ञात है लेकिन यह किस क्षेत्र से संबंधित रही है यह हमें ज्ञात नहीं हो सका है। हीरामानिक कैटेलॉग ने सुझाया है कि यह प्रतिमा शायद नौंवी शताब्दी की है और इसकी रचना संभवतः मैसूर में हुई होगी। इस प्रतिमा में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिनका संबंध प्रारंभिक चोल कांस्य-प्रतिमाओं से है। अतः इन प्रतिमापरक समानताओं के आधार पर प्रतीत होता है कि यह प्रतिमा दक्षिण-भारत क्षेत्र से संबद्ध है। इसपर यदि और अधिक
1 शाह (उमाकांत प्रेमानंद). स्टडीज इन जैन पार्ट. 1955. बनारस. चित्र, 1, रेखाचित्र 3, 18.9. [देखिए
अध्याय 8 तथा अध्याय 3:--संपादक.] 2 दिपार्टस प्रॉफ़ इण्डिया एण्ड नेपाल : द नास्ली एण्ड एलिस हीरामानेक कलेक्शन. 1966 वोस्टन. 1 92-93.
565
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org