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________________ संग्रहालयों में कलाकृतियां [ भाग 10 की क्षतिजिक क्रम में व्यवस्थित कुण्डलाकार एक विशाल आकृति है जिसके समक्ष कायोत्सर्ग-मुद्रा में पार्श्वनाथ अंकित है। इस प्रतिमा में उपरोक्त प्रतिमा की भाँति नक्षत्रों का अंकन नहीं है। जैनों में लोकप्रिय अंबिका यक्षी को, जिसे शिशों सहित पाम्र-वृक्ष के नीचे अनेक प्रतिमाओं में उत्कीर्ण पाया जाता है, चित्र ३१८ ख में एक अप्सरा की-सी लचीली मुद्रा में आकर्षक रूप से खड़ी हुई अंकित किया गया है। इसके ऊपरी भाग में तीर्थंकर नेमिनाथ की एक लघु प्राकृति अंकित है । यक्षी के पार्श्व में दोनों ओर उत्कीर्ण लताओं में बंदर आदि का विभिन्न प्रमोदकारी मुद्राओं में अंकन किया गया है। यक्षी जूड़ा बांधे हुए तथा चौड़ा पट्टीदार गले का हार एवं उत्तरीय धारण किये है। उत्तरीय का एक सिरा उसके बायें वक्षस्थल को ढंकता हुआ ऊपर की ओर तथा दूसरा सिरा दायें हाथ के पार्श्व से नीचे की ओर होकर जाता हुन्मा दर्शाया गया है। यक्षी की पारदर्शी साड़ी घुटनों से भी ऊँची बंधी हुई है तथा उसके कटि-भाग पर रत्न-जड़ित मेखला आबद्ध है । अंबिका का ज्येष्ठ शिशु शुभंकर उसकी दायीं ओर खड़ा हुआ अंबिका के दायें हाथ में लगे हुए आम्र-फलों के गुच्छे में से एक फल तोड़ने की चेष्टा कर रहा है, यक्षी बायें हाथ से अपने कनिष्ठ शिशु प्रभंकर को सँभाले हुए है। पादपीठ के समक्ष भाग पर बैठे हुए सिंह तथा इस प्रतिमा के दान-दाता की आकृति अंकित है। यह प्रतिमा हमें उड़ीसा से प्राप्त प्रायः इसकी समकालीन देवी प्रतिमा का स्मरण कराती है जो इस समय अमरीका की स्टेण्डहल गैलरीज में सुरक्षित है। इस प्रतिमा के लिए लगभग ग्यारहवीं शताब्दी का समय निर्धारित किया जा सकता है। दक्षिण भारत से लायी गयी आदिनाथ की चौबीसी में पंच-रथ प्रकार के पादपीठ पर कायोत्सर्ग तीर्थंकर प्रदर्शित हैं। दायीं ओर के ऊपरी भाग में उत्कीर्ण प्रतिमाएं खण्डित और लुप्त हो चकी हैं। अब जो भाग शेष बचा है उसपर ध्यान-मुद्रा में अंकित बैठी हई तीर्थंकर-प्रतिमाएँ देखी जा सकती हैं। मोती के आकार के दानों से अलंकृत परिधि-युक्त प्रभा-मण्डल और कंधों पर लहराते हुए केश-गुच्छ प्रमाणित करते हैं कि यह प्रतिमा तीर्थंकर ऋषभनाथ की होनी चाहिए। पादपीठ के सम्मुख-भाग पर यक्ष और यक्षी अंकित हैं जो अपनी चारों भुजाओं में अपने-अपने विशेष उपादान ग्रहण किये हुए हैं । यहाँ यह उल्लेख करना रोचक रहेगा कि तीर्थंकर के वक्ष पर श्रीवत्स का चिह्न अंकित नहीं है जब कि उत्तर भारत (बंगाल के अतिरिक्त) की तीर्थंकर-प्रतिमाओं में श्रीवत्स का अंकन होता है लेकिन दक्षिण भारत और दक्षिणापथ की तीर्थकर-प्रतिमाएं बिना श्रीवत्स-चिह्न के अंकित की गयी हैं। इस तथ्य को दक्षिण भारत की ऐसी ही समस्त प्रतिमाओं में देखा जा सकता है । 1 डेविडसन (जे लेरोय). मार्ट प्रॉफ दि इण्डियन सब-कॉण्टीनेण्ट फ्रॉम सॉस एंजिल्स कलेक्शन्स. 1968 . लॉस एंजिल्स. चित्र 36. शिवराम मूर्ति (सी). 'ज्योग्राफ़िकल एण्ड क्रोनोलॉजीकल फैक्टर्स इन इण्डियन आइकोनोग्राफ़ी,' एंशिएण्ट इण्डिया 6,1950.44-46. 556 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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