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featत एवं प्रतीकार्थ
[ भाग 9
से प्राप्त होते हैं। इसलिए जैन लोकविद्या का संक्षिप्त परिचय इस संदर्भ में प्रत्यधिक उपयोगी होगा ।
लोकसृष्टि अर्थात् जगत्कत्व का सिद्धांत जैन धर्म में पूर्णतया अमान्य है किन्तु लोकविज्ञान और लोकविद्या का प्रतिपादन जैन ग्रंथों में प्रत्यंत विस्तार से हुआ है। यह लोक प्रकृति से ही अनादिअनंत है और उसमें सर्वत्र छह द्रव्य व्याप्त हैं जिन्हें जीव और अजीव नामक दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है । ज्ञान और दर्शन ऐसे गुण हैं और सुख तथा दुःख ऐसी अनुभूतियाँ हैं जो किसी सत्ता में ही संभव हैं, वे किसी सत्ताहीन की क्रिया नहीं हो सकतीं, अतः उन्हें किसी सत्तावान् के गुण या पर्याय अवश्य मानना होगा और यही सत्तावान् जीव द्रव्य है। अजीव द्रव्य के अंतर्गत धर्म । अर्थात् गति का माध्यम, प्रथमं अर्थात् स्थिति का माध्यम, आकाश, पुद्गल अर्थात् भौतिक पदार्थ एवं ऊर्जा और काल खाते हैं। 4
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लोक और उसके भागों का आकार गणित और ज्यामिति के अनुरूप है, यह साकार वस्तुतः मनुष्य की उस मुद्रा के समान है जिसमें वह हाथ कमर पर रखकर और दोनों पैर बगलों में फैलाकर खड़ा होता है ( रेखाचित्र ४४ ) । इस आकार के अर्थात् लोक के अंतर्गत लोकाकाश है; और उसके बाहर लोकाकाश है जिसके अंतर्गत यह लोक तीन वातवलयों या वायुमण्डलों पर आधारित है। भीतरी वातवलय तनु अर्थात् आर्द्र है, बीच का घन अर्थात् ठोस है और बाहरी घनोदधि अर्थात् विरल । लोक के अग्र भाग पर सिद्धशिला अर्थात् वह क्षेत्र है जहाँ मुक्तात्माओं की स्थिति है, इस अर्धचंद्राकार क्षेत्र की आकृति उस उत्सल काँच के समान है, जिसका उन्नत भाग नीचे का ओर हो। लोक का उसकी कटि अर्थात् मध्य के बराबर चौड़ा ऊपर से नीचे तक का भाग ही ऐसा है जिसमें जस जीव या जंगम प्राणी"
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धर्म और अधर्म शब्दों का प्रयोग जैन लोकविद्या में एक अलग ही अर्थ में हुआ है जो उनके प्रचलित अर्थ से सर्वथा भिन्न है.
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इस द्रव्य की विश्लेषरण सहित व्याख्या के लिए देखिए गोपीलाल अमर का लख 'दर्शन और विज्ञान के आलोक में वृद्गल द्रव्य मुनि श्री हजारीमल स्मृतिपंथ, 1965, ब्यावर पु 368-88
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3 श्वेतांबर इस द्रव्य को जीव और अजीव का पर्याय मानते हैं, एक स्वतंत्र द्रव्य नहीं.
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इस और धागे के अनुच्छेदों का साभार-पंथ है राजयातिकालंकार नामक टीका सहित तावार्थ सूत्र, काशी, 2 भागों में, 1953-54
5 जगत् के लिए जैन धर्म में लोक शब्द का प्रयोग हुआ है, विश्व और ब्रह्माण्ड शब्द उसके प्रायः समानार्थक हैं, तथापि वे जैन धर्म में कम हो प्रचलित हो सके.
6 संसारी जीव अर्थात् मुक्तात्माओं को छोड़कर शेष सभी जीव त्रस और स्थावर (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और
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वनस्पति) हैं, उनके केवल स्पर्शन नामक एक ही इंद्रिय होती है। त्रस जीवों में रसना, घाण, चक्षु और श्रोत्र नामक इंद्रियों के कारण क्रमश: द्वींद्रिय, श्रींद्रिय आदि होते हैं। पंचेंद्रिय श्रसों के अंतर्गत सभी देव, मनुष्य, नारकी और कुछ तिर्यंच ( पशु-पक्षी प्रादि) प्राते हैं.
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