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________________ अध्याय 35 ] मूर्तिशास्त्र (२) कलश अर्थात् पूर्ण घट, (३) दर्पण, (४) चामर, (५) ध्वज, (६) व्यजन अर्थात् पंखा, (७) छत्र और (८) सुप्रतिष्ठ अर्थात् भद्रासन ।। वैदिक साहित्य में उल्लिखित पूर्ण कलश2 जीवन, बाहुल्य और अमरत्व की पूर्णता का भारतीय प्रतीक है। विश्व की विभिन्न प्राचीन सभ्यताओं में समान रूप से प्रचलित स्वस्तिक एक ऐसा प्रतीक है जिसकी उत्पत्ति और अवधारणा पर कुछ कहा जाना सरल नहीं है। हाल में पृथ्वीकुमार अग्रवाल ने श्रीवत्स-प्रतीक पर लेख लिखा है जो विष्णु के वक्षस्थल पर उसी प्रकार अंकित किया जाता है जिस प्रकार वह 'जिन' के वक्षस्थल पर किया जाता है। कुषाणकालीन तीर्थंकर-मूर्तियों पर पाया जाने वाला जो श्रीवत्स-प्रतीक का मूल आकार था वह कम से कम आरंभिक मध्य काल तक भुला दिया गया और उसके स्थान पर प्रकंद (राइज़ोम) के आकार का एक प्रतीक प्रचलित हुआ, यद्यपि उसे नाम श्रीवत्स ही दिया गया । मंगल-प्रतीकों की मान्यता जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्मों में बहुत प्राचीन काल से समान रूप से प्रचलित रही। वासुदेव शरण अग्रवाल ने साँची के एक शिल्पांकन मंगलमाला पर पहले ही चर्चा की थी। महाभारत के द्रोणपर्व, ८२,२०-२२ में ऐसे अनेक द्रव्यों का उल्लेख है जिन्हें अर्जुन ने युद्ध के लिए प्रस्थान करते समय या तो देखा या छुया, जिनमें कन्याएँ भी थीं। वामन-पुराण, १४,३५-३६ में भी बहुत से मंगल-द्रव्यों का उल्लेख है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी सजीव और अजीव मंगल-द्रव्यों की नामावलि है। मंगलों और मंगल-द्रव्यों की मान्यता रामायण में भी दृष्टिगत होती है। 1 तिलोय-पण्णत्ती, 4, 738, 1, पृ 236. 2 पूर्ण कलश के लिए द्रष्टव्य : आनंदकुमार कुमारस्वामी, द यक्षाज, भाग 2 (प्रथम संस्करण), पृ 61-64. वासुदेव शरण अग्रवाल, जर्नल ऑफ़ द यू पी हिस्टॉरिकल सोसायटी, 17, पृ 1-6 पर. वर्धमानक और श्रीवत्स-प्रतीकों पर कुमारस्वामी ने प्रोस्टेसियातिश्चे जीत्सक्रिफ्ट, 1927-28, Y 181-82 पर और ई. एच. जॉनसन ने जर्नल ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, 1931, पृ 558 तथा परवर्ती, वही, 1932, पृ 393 और आगे चर्चा की है. स्वस्तिक के लिए नॉर्मन ब्राउन की पुस्तक द स्वस्तिक द्रष्टव्य है. 3 वासुदेव शरण अग्रवाल, हर्षचरित : एक अध्ययन, पूर्वोक्त, पृ 120. 4 काणे, पूर्वोक्त, 2, पृ.512 भी द्रष्टव्य : उन्होंने शकुनकारिका की पाण्डुलिपि से अष्ट-मंगल द्रव्यों के संबंध में एक श्लोक उद्धृत किया है : दर्पण: पूर्ण-कलश: कन्या सुमनसोऽक्षताः । दीपमाला ध्वजा लाजाः संप्रोक्तं चाष्ट मंगलम् ।। 5 शब्दकल्पद्रम, 3, 574 पर उद्धृत. इसी कोष में 1,148, बृहन्नंदिकेश्वर-पुराण का एक श्लोक उद्घत है : मृगराजो वृषो नागः कलशो व्यंजनं तथा । वैजयंती तथा भेरी दीप इत्यष्टमंगलम् ।। शुद्धितत्त्व से भी एक उद्धरण हैं : लोकेऽस्मिन् मंगलान्यष्टौ ब्राह्मणो गौहुताशनः । हिरण्यं सपिरादित्य आपो राजा तथाष्टमः ।।। रामायण, 2, 23, 29. और भी द्रष्टव्य : वासुदेव शरण अग्रवाल, 'अष्ट-मंगल-माला' जर्नल ग्रॉफ दि इडियन सोसायटी ऑफ प्रोरियण्टल आर्ट, न्यू सीरीज 2, प 1, तथा परवर्ती. 507 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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