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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्य [ भाग १ शलाका-पुरुषों और चक्रवर्तियों की माताएँ देखती हैं। इन स्वप्नों का चित्रांकन या शिल्पांकन कहीं हुआ नहीं मिलता। दोनों आम्नायों में प्रचलित अष्ट-मंगलों का स्थान प्राचीन काल से ही जैन पूजा-पद्धति में रहा है। इन द्रव्यों की श्वेतांबर और दिगंबर नामावलियों में कुछ अंतर है। श्वेतांबर आगम-ग्रंथ औपपातिक-सूत्र के अनुसार अष्ट-मंगल ये हैं : स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त, वर्धमानक (चूर्णपात्र), पूर्णकुंभ, दर्पण और मत्स्य (या मत्स्य-युग्म)। जैन साहित्य और आगम-ग्रंथों में इनकी विभिन्न रूपों में प्रस्तुति के उल्लेख मिलते हैं : तोरणों या प्राचीरों के अग्रभागों के अलंकरण के रूप में, चैत्य-वृक्षों और चबूतरों पर स्थापित किये गये रूप में, या भित्तियों पर चित्रांकन के रूप में, इत्यादि । हेमचंद्र ने भी लिखा है कि अष्ट-मंगल द्रव्य बलि-पट्टों पर प्रस्तुत किये जाते थे। आधुनिक जैन मंदिरों में काष्ठ या धातु से निर्मित नीची चौकियाँ होती हैं जिनपर पूजा के द्रव्य चढ़ाये जाते हैं। उनके पाश्वों पर आठ मंगल द्रव्य या चौदह या सोलह स्वप्न शिल्पांकित या जड़े होते हैं। प्रायः जैन महिलाएं पूजा के कक्ष में इन आठ प्रतीकों को बिना पकाये और छिलके उतरे हुए चावलों से तश्तरियों पर बना देती है। मंदिरों में धातु-निर्मित मूर्तियों के साथ ऐसी लघु धातु-निर्मित तश्तरियाँ (यंत्र) भी स्थापित की जाती हैं जिनपर अष्ट-मंगल ढले या उत्कीर्ण होते हैं (चित्र ३१२ ख)। ऐसी अधिकांश तश्तरियाँ अधिक-से-अधिक एक या दो सौ वर्ष प्राचीन होती हैं। किन्तु हेमचंद्र ने अष्ट-मंगल द्रव्यों सहित बलि-पट्टों का जो उल्लेख किया है वह मथुरा के कुषाणकालीन आयाग-पटों पर उत्कीर्ण अष्ट-मंगलों के दृष्टांत से पुष्ट होता है। भद्रनंदी की पत्नी अचला द्वारा स्थापित आयाग-पट (स्मिथ की पूर्वोक्त पुस्तक का चित्र ११) पर ऊपर की पंक्ति में चार तथा नीचे की पंक्ति में और आठ प्रतीक उत्कीर्ण हैं । नीचे की पंक्ति में दायें से प्रथम जो अंशतः खण्डित प्रतीक है वह संभवतः श्रीवत्स था। दूसरा स्वस्तिक है, तीसरा अर्धोन्मीलित कमल-कलिका है, चौथा मत्स्य-युगल है, पाँचवाँ जलपात्र है, छठवां या तो समर्पित किये गये मिष्टान्न हैं या रत्नराशि । सातवाँ एक शास्त्र-सहित रिहल अर्थात् स्थापना प्रतीत होता है पर उसे भद्रासन भी कहा जा सकता है । आठवाँ प्रतीक एक खण्डित त्रिरत्न प्रतीत होता है । सबसे ऊपर बीच में जो सम-चतुष्कोणीय स्थान है उसमें एक श्रीवत्स का अंकन है, एक अन्य प्रकार का स्वस्तिक अंकित है जिसके छोर मुड़े 1 ऐसी मान्यताएं दोनों ही माम्नायों में सामान्य हैं किन्तु उनकी नामावलियों के अंतर से प्रतीत होता है कि उनका विकास गुप्तकाल के अनंतर तब हुआ जब श्वेतांबरों और दिगंबरों के मतभेद ने अंतिम रूप ले लिया था. 2 त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित 1, पृ 112-190./मादिपुराण, पर्व 22, श्लोक 143, 185, 210 आदि राय पसेणियम्, संपादक पं० बेचरदास, पृ 80. / जंबूद्वीप-प्रज्ञप्ति 1 पृष्ठ 43 भी. 3 त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित, 1, पृ 190 और टिप्पणी 238. 4 शाह, पूर्वोक्त, 1955, पृ.82, चित्र 10, लखनऊ संग्रहालय का क्रमांक जे. 252. 504 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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