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________________ अध्याय 35] मूर्तिशास्त्र स्थापना विकास-क्रम में कुछ बाद में प्रचलित हुई,1 पर यदि जैन आगम साहित्य में वर्णित राजगह के मग्गरपाणि यक्ष के आयतन का काल महावीर के समय तक ले जाया जा सके तो यह ध्यान में रखना होगा कि प्रचलन का उक्त विकास-क्रम भी महावीर के समय तक ले जाया जा सकेगा। बुद्ध और महावीर तथा अनेक प्राचीन विचारक और साधु ऐसे वृक्षों के नीचे इन चबूतरों पर ध्यान लगाया करते थे । वृक्षों के नीचे ध्यान लगाने की यह पद्धति वैसी ही है जिसका अनुसरण कदाचित बुद्ध ने किया । राइस डेविडस ने इसी दृष्टि से लिखा है कि जब कोई बहत गंभीर शंकासमाधान चल रहा होता तब उसे स्थगित करने को बुद्ध कहा करते--'ये रहे वृक्ष; करो समाधान अपनी शंका का। वृक्ष की चारों दिशाओं में एक-एक पीठ के निर्माण और उसपर शिलापट्ट की स्थापना के प्रचलन से चैत्य वृक्ष की पूजा के विकास के अगले क्रम का स्पष्ट आभास मिलता है। इससे मौलिक अवधारणा प्राप्त हई, एक तो चैत्य के प्रारंभिक रूप को जो चारों ओर अनावृत होता, और दूसरे, चतुर्मुख मंदिर को, साथ ही कंकाली-टीला की प्रतिमा सर्वतोभद्रिका को जिसके चारों ओर एक-एक तीर्थंकर-मूर्ति खड़ी (प्रथम खण्ड में चित्र १८) या बैठी मुद्रा में अंकित होती है। इस विचार की पूष्टि, आदि-पुराण में जिनसेन ने आदिनाथ के समवसरण में विद्यमान चैत्य वृक्षों का जो सविस्तार वर्णन किया है उससे होती है। उन्हें चैत्य वृक्ष कहते हैं क्योंकि उनके नीचे चारों ओर एक-एक जिनमूर्ति (चैत्य) स्थापित होती है। भवनवासी निकाय के देवों के चैत्य वृक्षों का वर्णन तिलोय-पण्णत्ती में भी इसी प्रकार का है। चतुर्मुख प्रतिमा (चारों ओर सम्मुख दिखने वाली मूर्ति) की मौलिक अवधारणा, समवसरण के संदर्भ में इस मान्यता पर आधारित है कि जिसके मध्य में स्थित पीठ पर विराजमान तीर्थंकर अपने चारों ओर बैठे दर्शक-वर्ग को उपदेश देते हैं ऐसे उस मण्डलाकार सभागार में इंद्र उन तीर्थकर की उनके पूर्णतया अनुरूप तीन मूर्तियाँ उन तीनों दिशाओं के सम्मुख स्थापित कर देता है जिनमें स्वयं तीर्थंकर सम्मुख नहीं होते, ताकि वहाँ चारों ओर बैठे दर्शक उन तीर्थंकर को प्रत्यक्षवत् देख सकें। इस प्रकार, इस अवधारणा में यह स्पष्ट है कि वे जो मूर्तियाँ होती हैं वे किसी एक ही तीर्थकर की होती हैं जिसे चारों ओर से देखा जाना अभीष्ट होता है । फलितार्थ यह कि महावीर की एक चतुर्मुख मूर्ति हो तो 1 तुलना कीजिए, प्रोदेते विएनौत. ला कल्ते द ल' पर्वे दाँस ल' इं ऐंश्येने, चित्र 8 घ, अमरावती स्तूप से संबद्ध. 2 तुलना कीजिए, भगवतीसूत्र, 3, 2, सूत्र 144, जिसमें वर्णन है कि महावीर एक वृक्ष के नीचे पृथ्वी-शिला-पट्ट पर ध्यान लगाये बैठे थे. 3 राइस डेविड्स, (टी डब्ल्यू). बुद्धिस्ट इण्डिया. पृ 230-31. 4 प्रादिपुराण 22, 184-204, 1, पृ 524-27. 5 तिलोय-पण्णत्ती, 3, 33-39, 1, पृ 115. 497 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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