SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरालेखीय एवं मुद्राशास्त्रीय स्रोत [ भाग 8 चालुक्य शासकों और उनके अधिकारियों के प्रश्रय के माध्यम से जैन धर्म उन क्षेत्रों में अपना प्रभाव केवल ग्यारहवीं शती के प्रारंभ से ही बद्धमूल कर सका। और उसके बाद तो शतियों तक उस विस्तृत क्षेत्र में दिलवाड़ा, अचलगढ़, शत्रुजय, सरोत्रा, तारंगा, गिरनार, जालोर, उदयपुर, जयपुर पालीताना, पाली, नाडलई, राणकपुर आदि जैसे कला-वैभव के लिए विख्यात स्थानों पर अनेक महत्त्वपूर्ण जैन प्रतिष्ठानों का प्रादुर्भाव हुआ। जैन स्मारकों से समृद्ध इन तथा अन्य स्थानों पर ग्यारहवीं से अठारहवीं शती तक की विभिन्न तिथियों से अंकित अनेक अभिलेख उत्कीर्ण किये गये जिनके व्यवस्थित अध्ययन से गुजरात और राजस्थान के जैन स्मारकों के इतिहास का एक समूचा चित्र सामने आता है। उक्त कथन की संपुष्टि के लिए अनुपम उदाहरण है वह प्रसिद्ध जैन मंदिर-समूह जो पाबू में स्थित है, जिसका अपने सार्थक नाम दिलवाड़ा (देव-कुल-वाटक) के रूप में प्रसिद्ध होना तर्कसंगत है। विमल-वसति, लूणा-वसति, पित्तलहर-मंदिर, चतुर्मुख या खरतर-वसति और महावीर स्वामीमंदिर नामक पाँच प्रसिद्ध श्वेतांबर-मंदिरों में अनेक ऐसे अभिलेख हैं जिनसे इन मंदिरों के निर्माण, नवीनीकरण, संवर्धन और उनमें मूर्तियों की स्थापना और प्रतिष्ठा के विषय में विस्तृत और तिथिसहित सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। इस प्रकार, यहाँ के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि विमल-वसहिका का निर्माण और आदिनाथ के लिए उसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १०८८ (१०३१-३२ ई०) में हुई थी। इस मंदिर की हस्तिशाला में आदिनाथ के समवसरण की स्थापना विक्रम संवत् १२१२(११५५-५६ ई.)2 में हुई थी, इस वसहिका का नवीनीकरण तीन बार में अर्थात् विक्रम संवत् १२०६ (११४६ ई.), विक्रम संवत् १३०८ (१२५१-५२) और विक्रम संवत् १३७८ (१३२१-२२ ई०)3 में हुआ था (चित्र ३४१ख) और अनेक लघु गर्भालयों अथा देवकोष्ठों का निर्माण और मूर्तियों की (पृथक्-पृथक् और सामूहिक या मूर्ति-पट्टों के रूप में)स्थापना इस मंदिर के विभिन्न भागों में शतियों तक होती रही। लणा-वसहिका के एक अभिलेख में4 विक्रम संवत् १२८७ (१२३०-३१) में उसकी प्रतिष्ठा का वृत्तांत है और इस मंदिर का विवरण इन शब्दों में है : तेजःपाल इति क्षितीन्द्र-सचिवः शंखोज्ज्वलाभिः शिलाश्रेणीभिः स्फूरदिन्दु-कुन्द-रुचिरं नेमिप्रभोमन्दिरम् । उच्चैर्मण्डपमग्रतो जिनवरावास-द्विपंचाशतम् तत्पाद्वेषु बलानकं च पुरतो निष्पादयामासिवान् ।। . 1 श्री-अर्बुद-प्राचीम-जैन-लेख संबोह, 2. क्रमांक 1. 2 वही, क्रमांक 229. 3 वही, क्रमांक 72, 184,36. 4 वही, क्रमांक 250. 460 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy