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चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प
[ भाग 7
दूसरा उसके पार्श्व में खड़ा पूर्ण-कुंभ और जप-माला लिये है, नीचे के दायें कोण पर दो कुत्तों के अंकन से इस समूचे दृश्य में स्वाभाविकता का संचार हो गया है ।
, यह उल्लेखनीय है कि काष्ठ-निर्मित जैन पट्टियों में जन-समूह के साथ बैलगाड़ियाँ' प्रायः दिखाई जाती हैं (चित्र ३०० ख) । ये बैलगाड़ियाँ सदा पूरी सावधानी से उत्कीर्ण की गयी होती हैं और बैल चलते हुए दिखाये जाते हैं और उनके आगे-पीछे चलती हुई कुछ आकृतियाँ भी अंकित होती हैं। प्राचीन काल में यात्रा का एक और साधन था पालकी, जो विशेष रूप से राजपरिवार के सदस्यों द्वारा उपयोग में लायी जाती थी, इन पट्टियों पर उसका भी अंकन हुआ है। यहाँ जिस पट्टी का चित्र दिया गया है (चित्र ३०० ग) उसमें एक राज-दंपति को पालकी में बैठा दिखाया गया है। उसके मागे गजारोही और पीछे अश्वारोही चल रहे हैं जिससे प्रकट होता है कि उक्त दंपति वास्तव में राजा और रानी हैं। अपना भार संतुलित बनाये रखने के लिए राजा ने किसी वस्तु को जोर से पकड़ रखा है। इस चित्रण से शिल्पकार की सूक्ष्म दृष्टि की अभिव्यक्ति होती है। पालकी ले जाने वालों के अंकन में भी स्वाभाविकता का इतना ध्यान रखा गया है जितना अन्य में नहीं रखा जाता।
कुछ दिन पूर्व, बंबई के एक प्रसिद्ध कलापारखी श्री हरिदास के० स्वाली ने एक अत्यंत उल्लेखनीय पट्टी प्राप्त की है जिसमें नेमिनाथ की वर-यात्रा का चित्रण हआ है। यह २.२८ मीटर लंबी और २५ सेण्टीमीटर ऊँची है और उसपर के रंग की एक मोटी परत अब भी बच रही है। बायें से दायें उसपर दो अश्वारोही और एक बैलगाड़ी, तुरही और ढोल बजाने वाले, दोनों हाथों में मालाएँ धारण किये और नारी-प्राकृतियों से घिरा राजपरिवार का एक सदस्य, विवाह-मण्डप, आवास-गृह का दृश्य, पशु और विवाह-भोज के लिए मिष्ठान्न पकाये जाने के दृश्य अंकित हैं। विवाह-मण्डप में एक-के-ऊपर एक रखे मंगल-घट, बंदनवार और हवन की अग्नि का दृश्य अत्यंत रोचक बन पड़ा है और उससे पाटन (गुजरात) की सोलहवीं-सत्रहवीं शती की एक झांकी मिलती है, जब और जहाँ इस पट्टी का निर्माण हुआ होगा। खाद्य-पदार्थों की तैयारी का एक अन्य दृश्य भी बहुत मनोरंजक है । प्राग पर रखी कड़ाही में किसी वस्तु को टालने में दो व्यक्ति व्यस्त हैं जब कि एक और व्यक्ति पास में रखी आलमारी से चुपचाप मिष्ठान्न चुराता हया दिखाया गया है।
निष्कर्ष
उपर्य क्त चर्चा से ज्ञात होता है कि जैन काष्ठ-शिल्प का क्षेत्र और उसकी विविधता कितनी व्यापक है। उससे हमें उस काल के सामाजिक इतिहास के पुननिर्धारण में ही सहायता नहीं मिलती वरन् कला के इतिहास में रह गयी कमी की पूर्ति भी होती है। इन सभी शिल्पांकनों से आकार में लघु
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शाह, वही, पृ 5, 8.
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