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संपादकीय और तकनीकी पक्षों का उनका जो दीर्घकालीन अनुभव है, उसके कारण भी अनेक तात्कालिक आड़े आने वाली समस्याओं का समाधान हाथ-के-हाथ होता चला गया।
जहाँ इस ग्रंथ के सभी लेखकों के प्रति हम बहुत आभारी हैं, वहाँ उन लेखकों के प्रति विशेष आभार व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है जिन्होंने योजना में कल्पित उन अध्यायों के लेखन का दायित्व लिया जो किन्हीं कारणों से या तो प्राप्त नहीं हो पाये या जो छूटे जा रहे थे। इन सब लेखकों ने बहुत उदात्त भावना से सहयोग दिया क्योंकि वे जानते थे कि इस योजना के माध्यम से अंततोगत्वा वे नयी और पुरानी सामग्री द्वारा भारतीय स्थापत्य और कला के उस समग्र परिदृश्य को समृद्ध कर रहे हैं जो अबतक इस प्रकार का संग्रथित रूपाकार नहीं ले पाया। इन्होंने हमें केवल सहयोग ही नहीं दिया, अन्य बातों में हमारे अनुरोधों और मंतव्यों को मान भी दिया। भारतीय ज्ञानपीठ के सभी सहयोगियों के प्रति में कृतज्ञ हूँ कि वे इस योजना की सफलता के प्रति समर्पित रहे।
तीनों खण्डों की पृष्ठ-संख्या का योग ६२८ है। ६७० सादे और ५० रंगीन चित्रों की संख्या इसके अतिरिक्त है। इस ग्रंथ को हम एक ऐसी पताका मानते हैं जिसे लेकर हम आगे चले हैं उन व्यक्तियों और संस्थाओं के स्वागत-अभिनंदन में जो भविष्य में इस मार्ग पर चलकर जैन कला और स्थापत्य की अभिवृद्धि में योगदान करेंगे । हमारी कामना है कि उनका दल बहुल हो ।
नई दिल्ली २० मई, १९७५
लक्ष्मीचन्द्र जैन मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ
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