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आमुख
'जैन कला और स्थापत्य' के इस तीसरे खण्ड के प्रकाशन के साथ भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा इस विषय पर निर्धारित कार्यक्रम का वह एक अंश समापन प्राप्त कर रहा है जिसे भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर संपन्न करने का दायित्व भारतीय ज्ञानपीठ ने लिया था । प्रसन्नता की बात यह है कि महोत्सव वर्ष में इतने विशालकाय कलाग्रंथ के तीनों भाग हम अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में प्रकाशित कर रहे हैं ।
प्रथम खण्ड की भूमिका में मैंने उन कठिनाइयों का उल्लेख किया है जिनका सामना हमें इसलिए विशेष रूप से करना पड़ा क्योंकि इस कलाग्रंथ की योजना बहुत बड़ी थी और इसे एक सीमित कालावधि में संपन्न करना था । कठिनाइयों के केवल संपादकीय पक्ष की कथा पहले भाग में लिखी थी ।
दूसरे प्रकार की कठिनाइयों का संबंध ग्रंथ के तकनीकी पक्ष से है - यथा, ग्रंथ की छपाई अंग्रेजी के प्रथम खण्ड से आरंभ हुई और अंग्रेजी में स्वराघात वाले टाइप रखने वाले ऐसे प्रामाणिक प्रेस की खोज जो समय से काम कर देने के लिए तैयार हो, ऐसे टाइप के प्रूफ पढ़ने की कठिनाई, कागज की दिन-पर-दिन बढ़ती गयी कीमतें, ब्लाँकों के बनवाने और छपवाने के मूल्य में इस प्रकार के संतुलन का प्रयत्न कि न तो मूल्य अधिक बढ़ें और न काम का स्तर नीचे जाये । इन सब प्रयत्नों का प्रतिबिंब ग्रंथ में आपको प्रतिभासित होगा । यदि भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासधारी मण्डल का दृष्टिकोण उदार न होता और सभी व्यय भार आज के बाजारभाव पर फैलाया जाता तो एक-एक खण्ड का प्रायः वह मूल्य रखना पड़ता जो अब तीनों खण्डों का संयुक्त रखा गया है ।
यदि इन कठिनाइयों का समाधान निकालकर हम प्रकाशित कर पाये हैं तो इसका श्रेय भारतीय ज्ञानपीठ के प्रदत्त समर्थन को और ज्ञानपीठ की अध्यक्षा श्रीमती रमा जैन के मार्गदर्शन को है ।
अपने कार्यक्रम के अनुसार यह समग्र ग्रंथ संस्थापक श्री साहू शांतिप्रसाद जैन द्वारा
इस योजना को कार्यान्वित करने में प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं श्री अमलानंद घोष जिन्होंने इस ग्रंथ का मूल संपादन अंग्रेजी में किया । इस प्रकाशन में जो गुण परिलक्षित हैं, वे श्री घोष के न केवल कठिन परिश्रम और सायास सावधानी के सुफल हैं, अपितु इस प्रकार के कला-प्रकाशनों के
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