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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई० [ भाग 5 गाहड़वाल शासन-काल में निर्मित स्मारकों की स्थिति इससे भी अधिक गयी-बीती है । गाहड़वालों के संपूर्ण राज्य (उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार के कुछ भाग ) में एक भी ऐसा जैन मंदिर या ब्राह्मण्य मंदिर अपने सही रूप में नहीं बच सका है कि जिससे उक्त राजवंश के शासन काल में देश के उस भाग में मंदिर - निर्माण का सामान्य परिचय भी प्राप्त हो सके । जैनमतानुसार, संपूर्ण भारत में मध्य देश ( हरियाणा और उत्तर प्रदेश ) इतनी पवित्रतम भूमि है कि उसपर अठारह तीर्थंकरों ने जन्म लिया था और तीर्थंकर काल बिताया था । प्राचीन काल में यह भूमि जैन संस्कृति की स्रोत भूमि भी थी । गाहड़वालों के उत्कर्ष काल में यहाँ, विशेषकर हस्तिनापुर, अहिच्छत्र, मथुरा, कान्यकुब्ज, कौशाम्बी, वाराणसी, अयोध्या, श्रावस्ती आदि स्थानों तथा अन्य अनेक स्थलों पर असंख्य मंदिरों एवं अन्य पवित्र भवनों का निर्माण किया गया होगा; किन्तु आज कुछ प्रतिमाओं, खण्डित स्तंभों, अर्ध-स्तंभों या भवनों के अन्य अंगों को छोड़कर कुछ भी उपलब्ध नहीं है । इस उक्त प्रदेश के मध्यकालीन जैन कला - इतिहास को ठीक-ठीक समझ पाना अत्यंत कठिन है । कारण स्थापत्य इस युग में निर्मित जैन धार्मिक भवन कई प्रकार के रहे होंगे, जैसे – मंदिर ( प्रासाद), देवकुलि - काएँ, सहस्रकूट ( सामान्यतः पिरामिड के आकार की ठोस संरचना जिसपर सहस्राधिक तीर्थंकर - मूर्तियाँ निर्मित होती हैं), मान-स्तंभ, निषिधिकाएँ ( स्मारक - स्तंभ), मठ आदि, जिनके संबंध में हमें विभिन्न स्रोतों से जानकारी प्राप्त होती है । चाहमान राज्य संभवतः प्रभावोत्पादक चतुःशालाओंों से युक्त सुस्पष्ट लक्षणों वाले जैन भवनों से परिपूर्ण था । ये भवन उन छोटे-छोटे मंदिरों या यत्र-तत्र बनी देवकुलिकानों के अतिरिक्त रहे होंगे जिनके सामने प्रवेश मण्डप होते थे और वे प्राकार सहित, या बिना प्राकार के होते थे, क्योंकि इन मंदिरों का निर्माण निर्माता की क्षमता, इच्छा और आवश्यकता के अनुसार किया जाता था । जैन मंदिरों का सामान्य रूप ब्राह्मण्य मंदिरों से अधिक भिन्न नहीं होता था । हाँ, मूर्तियाँ अवश्य भिन्न होती थीं क्योंकि उनका निर्माण जैन धर्म के पौराणिक आख्यानों, दार्शनिक सिद्धांतों तथा संस्कार संबंधी संकल्पनाओं के अनुसार किया जाता था । वास्तुकार, राज और शिल्पी उसी वर्ग के होते थे जो विभिन्न प्रदेशों में ब्राह्मण्य या अन्य भवनों के निर्माण का कार्य करते थे । इस युग के जैन मंदिर, ब्राह्मण्य भवनों के ही समान, क्षेत्रीय विभिन्नताओं तथा शैलीगत विशेषताओं को प्रदर्शित करते हैं । चाहमान काल में जिन मुख्य भवन-निर्माण-शैलियों ने मंदिर निर्माण गतिविधि को रूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी वे राजस्थान की उस मूल भवन-निर्माण-परंपरा से जुड़ी थीं जिनका सीधा संबंध एक ओर प्रतीहार वास्तु स्मारकों से था और दूसरी ओर गुर्जर देवकोष्ठों की शैली से । पूर्वी भागों की सादगीपूर्ण स्थानीय शैली का अनुकरण भी अतिरिक्त रूप से होता 1 ढाकी ( एम ए ) . महावीर जैन विद्यालय गोल्डेन जुबली वॉल्यूम 1968 बम्बई. पृ 306 तथा परवर्ती. Jain Education International 244 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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