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अध्याय 20]
उत्तर भारत
है, फिर भी एक ही उदाहरण यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि उनके धार्मिक विचार उदार और सहिष्णु थे । अपने पूर्ववर्ती राजाओं की भाँति गाहड़वाल शासक गोविंदचंद्र कट्टर ब्राह्मणमतावलंबी था किन्तु उसकी रानी कुमारदेवी बौद्ध थी। उसके पति ने उसे सारनाथ में बौद्ध धर्म-चक्रजिन-विहार का जीर्णोद्धार कराने की अनुमति दी थी। गोविंदचंद्र ने श्रावस्ती के बौद्ध संघ को एक गाँव का दान भी किया था ।
कौशाम्बी, मथरा, श्रावस्ती और अन्य स्थानों से प्राप्त जैन प्रतिमाओं से यह संकेत मिलता है कि गाहड़ वालों के शासन-काल में जैन धर्म भी भली-भाँति फला-फूला। ऐसा प्रतीत होता है कि इस वंश के कुछ शासकों का गुजरात के चौलुक्यों से राजनयिक संबंध था। कुमारपालचरित में यह उल्लेख है कि चौलुक्य कुमारपाल ने पशनों का बध रोकने के लिए अपने मंत्रियों को काशी भेजा था। काशी का विश्वेश्वर नामक कवि, जो प्रबंधचिंतामणि के अनुसार, कुमारपाल के शासनकाल में पाटन में महान् जैनाचार्य हेमचंद्र द्वारा प्रायोजित एक साहित्य-गोष्ठी में सम्मिलित हना था, संभवत: गाहड़वाल शासक द्वारा मनोनीत राजप्रतिनिधि था । काशी का अधिपति, जिसने प्रसिद्ध जैन कवि अभयदेव को वादिसिंह की उपाधि दी थी, संभवतः परवर्ती गाहड़वाल शासक था। जौनपुर की लाल-दरवाजा-मस्जिद के एक स्तंभ-शीर्ष पर उत्कीर्ण अभिलेख (विक्रम संवत् १२०७%= ११५१ ई०) में किसी भट्टारक भाविभूषण का उल्लेख किया गया है जिसे उसकी उपाधि को देखते हुए एक महत्त्वपूर्ण जैन साधु माना जा सकता है । वह संभवतः जौनपूर क्षेत्र के किसी जैन धार्मिक संस्थान से संबद्ध था।
उत्तर में शिवालिक से दक्षिण में चित्तर तक और राजस्थान के विशाल मरुस्थल के पूर्वी छोर से वाराणसी तक या उससे भी कुछ आगे तक का विशाल भू-भाग चाहमान और गाहड़वाल सम्राटों के राज्यों में सम्मिलित था। साहित्यिक और पुरातात्त्विक उल्लेख तथा भौतिक अवशेष इसके द्योतक हैं कि ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियों में भारत के इस हृदय-प्रदेश में जनता, राजाओं तथा सामंतों ने अनेक जैन मंदिरों का निर्माण कराया था। संभवतः ये भवन जैन कला और स्थापत्य के महत्त्वपूर्ण पक्षों का प्रतिनिधित्व करते थे, किन्तु इस समय हमें जो साक्ष्य उपलब्ध है, वह दुर्भाग्य से देश और काल की दृष्टि से सीमित है। राजस्थान में शाकंभरी, अजयमेरु, आमेर, नागौर, पल्ल, सांगानेर और रणथम्भौर तथा ढिल्लिका (दिल्ली-मेहरौली क्षेत्र) और हरियाणा के पासिका (हांसी), पिंजौर तथा कुछ अन्य स्थानों के भव्य चाहमानकालीन मंदिरों का या तो कुछ पता नहीं है या उनके अवशेष इतने खण्डित अवस्था में हैं कि उनसे मंदिर के ठीक-ठीक रूप का वर्णन और उनकी स्थापत्य-विशेषताओं का विश्लेषण किया जाना असंभव है। हाँ, चौलुक्यों के सामंत नादोल के चाहमानों के शासन-काल में निर्मित कुछ महत्त्वपूर्ण मंदिर अब भी अपने मूल रूप में सुरक्षित बचे हैं।
1 नियोगी (रोमा). हिस्ट्री ऑफ द गाहड़वाल डायनेस्टी. 1959. कलकत्ता. पृ 82. 2 कनिंघम. (ए) प्रायॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ इण्डिया, रिपोर्ट. 1871. 11; (पुनर्मुद्रित) वाराणसी. 1966
पृ 126.
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