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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई०
[ भाग 4 परंपरा के अनुसार मूलतः भरतेश्वर मुनि के लिए बनवाया गया था । यद्यपि इस तथ्य का निश्चय कर पाना कठिन है, किन्तु जैन मंदिरों के ब्राह्मण्य मंदिरों के रूप में क्रमश: परिवर्तन की प्रक्रिया चितराल और कल्लिल के उदाहरणों से भली-भाँति प्रमाणित होती है। इस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति कन्याकुमारी जिले में नागर कोइल के नागराज-मंदिर में भी दृष्टिगत होती है जिसमें स्तंभों और भित्तियों पर उत्कीर्ण ब्राह्मण्य मूर्तियों के आसपास जैन शिल्पांकन अब भी बच रहे हैं। यह मंदिर कम से कम कोल्लम ६६७ (१५२२ ई०) तक जैन रहा, जब इसे त्रावणकोर के राजा भूतलवीर उदय मार्तण्डवर्मन से दान प्राप्त हुआ । इस मंदिर में उत्कीर्ण महावीर, पार्श्वनाथ और उनकी शासनदेवी पद्मावती की मूर्तियाँ शैली के आधार पर सोलहवीं शताब्दी की मानी जा सकती हैं। तथापि, एकएक आसीन मूर्ति से लिपटे हुए पंचफण नागों की दो विशाल मूर्तियां दसवीं शताब्दी की मानी जानी चाहिए--जबकि प्राय राज्य में जैन धर्म अपने उत्कर्ष काल में था। कोल्लम ७६४ (१५८६ ई.) में निर्मित अनंत-मंदिर के संदर्भ में गोपीनाथ राव ने लिखा है कि पार्श्वनाथ की मूर्ति कदाचित् परवर्ती काल में विष्णु के आदिशेष अर्थात् नागर तिरुवनन्ताल्वान के रूप में परिवर्तित हो गयी थी।
शैलाश्रयों और कुछ निर्मित-मंदिरों के रूप में जैन धर्म ने केरल में पड़ोस के पाण्डय देश से प्रेरणा प्राप्त की होगी। तिरुनेल्वेलि जिले के कलुगुमल की एक विशाल चट्टान पर अभिलेखों सहित उत्कीर्ण अगणित निम्न-उद्धृतों की चितराल के शिल्पांकनों से प्रत्येक दृष्टि से तुलना की जा सकती है। किन्तु केरल में, विशेषत: उत्तर केरल में, इस धर्म के उत्कर्ष को मैसूर क्षेत्र से भी किसी सीमा तक प्रेरणा मिली होगी। कुछ जैन प्रतिष्ठान आज भी कोजीकोड जिले के वाइनाड क्षेत्र के कलपेटा, मानण्टोडी तथा अन्य स्थानों में विद्यमान हैं। इसी जिले में सुलतान की बैटरी के समीप एडक्कल पहाड़ी के पश्चिमी ढलान पर जो शैलाश्रय है उसे कुछ अधिकारी विद्वान् जैन परंपरा का मानते हैं। यद्यपि, इस शैलाश्रय में अभिलेख हैं जिनमें से एक छठवीं शताब्दी का है, और शिल्पांकन भी हैं, तथापि इसमें ऐसा कोई चिह्न नहीं जिससे उसे जैन कहा जा सके। किन्तु, गणपति-पट्टम के नाम से भी प्रसिद्ध और एडक्कल शैलाश्रय के निकट स्थित सुल्तान की बैटरी में एक बड़ी जैन बस्ती के खण्डहर हैं जिनकी तिथि यदि और पहले की न भी हो तथापि तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी की तो होनी ही चाहिए। पूर्ण-रूप से ग्रेनाइट पाषाण द्वारा निर्मित यह मंदिर चैत्यवास का एक उदाहरण है। इसकी अक्षवत रूप-रेखा में एक वर्गाकार गर्भगृह, अर्ध-मण्डप और महा-मण्डप हैं जिन्हें बाद में एक आवृत भवन का रूप देकर दो खण्डों में विभक्त कर दिया गया है। इसके अतिरिक्त एक मुख-मण्डप भी है जो केरलीय
1 मेनन (ए श्रीधर). ए सर्वे प्रॉफ के ल हिस्ट्रो. 1967. कोट्टायम. पृ 88-89. 2 राव, पूर्वोक्त, 1919, पृ 127-28: 3 बही, पृ 129, पादटिप्पणी, 2. 4 मेनन, पूर्वोक्त, पृ. 89. / पिल्लं (एलमकुलम पी एन कुजन). स्टडीज इन केरल हिस्ट्री. 1970. कोट्टायम. पृ
261. 5 फॉसेट (एफ). नोट्स ऑन द रॉक काविग्स इन दि एडक्कल केव, वाइनाड. इडियन एण्टिक्वेरी. 30; 19015
पू409-21.
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