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अध्याय 19 ]
दक्षिण भारत
राल की भाँति यह स्थान भी भगवती-मंदिर के नाम से प्रसिद्ध था। इस परंपरा से यह संकेत मिलता है कि इस मंदिर-समूह में पहले पद्मावती की मूर्ति भी स्थापित थी।
गोदापुरम स्थान पर वर्तमान में निर्मितियों के कुछ खण्डहर और यत्र-तत्र बिखरे हुए वास्तुखण्ड ही विद्यमान हैं। यह क्षेत्र एक छोटे टीले के समान दिखाई देता है । उत्खनन से इसमें निर्मिति के मिलने की पूरी-पूरी संभावना है। इसके एक खुले हए भाग से ग्रेनाइट पाषाण से निर्मित किसी मंदिर का अंश और उसका मंचक-शैली का अधिष्ठान स्पष्ट दिखाई पड़ता है। साथ ही, बिखरे पड़े वास्तु-खण्डों में अधिष्ठान के अवयव, यथा-उपान, जगती, त्रिपट्ट-कुमुद, कम्पों सहित कण्ठ-पट्टिका आदि तथा वृत्त-कुमुद के कुछ खण्ड भी, जो निश्चित रूप से किसी और मंदिर के हैं, देखे जा सकते हैं । इस जैन अधिष्ठान के सभी मंदिरों की रूप-रेखा, जैसाकि इनकी गोटों से प्रतीत होता है, मूलतः वर्गाकार या आयताकार थी और उनमें पद्मासन या खड्गासन तीर्थंकर-मूर्तियाँ स्थापित थीं। शैली के आधार पर ये मूर्तियाँ नौवीं-दसवीं शताब्दी की मानी जा सकती हैं। इस तिथि की पुष्टि दसवीं शताब्दी की वट्टेजुत्त लिपि में उत्कीर्ण एक तमिल अभिलेख की खोज से भी हो चुकी है। इस तिथिरहित अभिलेख में उक्त मूर्ति का उल्लेख तिरुक्कुणवायत्तेवर के नाम से हुआ है जिससे कुण्वायिर्कोट्टम का स्मरण हो पाता है जहाँ शिलप्पदिकारम के लेखक ने अपने चेर राज्याधिकार को छोड़कर आश्रय लिया था। इस जैन अभिलेख के समय और प्राप्ति-स्थान से यह निष्कर्ष निकलता है कि द्वितीय चेर राजवंश के उदय के समय जैन धर्म अपने उत्कर्ष काल में था।
पालघाट नगर में भी आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभ को समर्पित एक जैन मंदिर है पर उसके निर्माणकाल का अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि वर्तमान काल में किये गये जीर्णोद्धार-कार्यों ने उसको सर्वथा नया रूप दे दिया है। वर्तमान मंदिर के सामने एक प्राचीन मंदिर का अधिष्ठान है (चित्र १४१) और दक्षिण के किसी भी ब्राह्मण्य मंदिर की भाँति इसके सामने भी एक अर्धपीठ है। इस ध्वस्त मंदिर का ग्रेनाइट पाषाण से निर्मित अधिष्ठान मंचक-शैली का है। इस स्थान से वज्रपर्यंकमुद्रा में पासीन शीर्षविहीन जैन मूर्ति (चित्र १४२) मिली थी। इसका शिल्पांकन दक्षिण भारत में साधारणतः मिलनेवाले शिल्पांकनों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविक है। इसके उन्नत एवं पुष्ट कंधे और इकहरी देहयष्टि उत्तर-भारतीय शैली का स्मरण दिलाते हैं।
यह सामान्य रूप से स्वीकार किया जाता है कि ब्राह्मण्य धर्म के पुनर्जागरण के साथ बहुत से जैन मंदिर ब्राह्मण्य मंदिरों के रूप में परिवर्तित कर दिये गये। उदाहरण के लिए, त्रिचर जिले के इरिंगलकूड का कुडलमणिक्कम-मंदिर, जो अब राम के भ्राता भरत के लिए समर्पित है, प्रचलित
1 इण्डियन प्रॉक्यिॉलाजी, 1968-69, ए रिव्यू . 1971. नई दिल्ली. पृ. 86. 2 एनुअल रिपोर्ट प्रॉन इण्डियन एपिग्राफी. 1959-60. क्रमांक 438. / जनन अॉफ इण्डियन हिस्ट्री. 44; 1966,
4537 तथा सं० 48; 1970; 692.
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