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________________ अध्याय 19] दक्षिण भारत अरिष्टनेमि-भटार की शिष्या पत्तिनिक्कुरत्ति को चोल नरेश परांतक-प्रथम के शासनकाल में कुछ महत्त्व प्राप्त था। ९४५ ई० के एक अभिलेख से इस तथ्य की पुष्टि होती है। उत्तर अर्काट जिले के तिरक्कोल में एक महत्त्वपूर्ण शिलाखण्ड है जिसपर जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं (चित्र १३३)। इसी जिले में अर्मामले में खण्डित जैन प्रतिमाएँ और गुफा के भीतर की परवर्ती निमितियों के साक्ष्य मिले हैं। विशालाकार अर्मामल गुफा को ईंटों से त्रिकूट-शैली के तीन गर्भगृहों वाले जैन मंदिर का रूप दिया गया। खण्डित प्रतिमाओं के अवशेषों में शिलापट्टों पर उत्कीर्ण दो द्वारपालों के उथले उरेखन हैं । यह और इनके साथ के दो अन्य शिलापट्ट हैं जिनके एक ओर कमल-प्रतीकों का अंकन है और कुछ खण्डित भित्तिस्तंभ हैं। मात्र यही मूर्ति एवं वास्तु-कला के अलंकरण के अवशेष बचे हैं। कमल-प्रतीकांकित शिलापट्ट के केंद्र में एक चूल है जिससे यह संकेत मिलता है कि यह शिलापट्ट काष्ठ के स्तंभाधार के रूप में, संभवत: मान-स्तंभ या ध्वज-स्तंभ के रूप में, प्रयुक्त होता रहा है। दो द्वारपाल कदाचित् चण्ड और मंचण्ड की मूर्तियाँ हैं । द्वारपालों के निम्न-उद्धृतों की रूप-रेखा और शैली, पल्लव की अपेक्षा राष्ट्रकूट-गंग कला की अधिक सजातीय प्रतीत होती है। वस्तुतः त्रिकूट का मध्यवर्ती गर्भगृह पार्श्ववर्ती गर्भगृहों की अपेक्षा अधिक विशाल है। इससे विदित होता है कि त्रिकूट मध्यवर्ती गर्भगृह में प्रतिष्ठापित मुख्य प्रतिमा को समर्पित है, जबकि पार्श्ववर्ती गर्भगृहों में संभवतः अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियाँ या चूने द्वारा निर्मित यक्ष-यक्षी रहे हों। इसकी भित्तियों और पलस्तर की गयी छत पर मनोहारी भित्ति-चित्रों के अवशेष हैं। मंदिर और इसकी प्रतिमानों एवं भित्ति-चित्रों के निर्माण का समय नौंवी शताब्दी का उत्तरार्ध और दसवीं शताब्दी का प्रथमांश संभावित है, जैसाकि इसके चित्रांकनों से प्रतीत होता है, जो एलोरा की राष्ट्रकूट-शैली के अनुरूप हैं। ऐसा ही संकेत चोललिपि में लगभग दसवीं शताब्दी के एक लघ अभिलेख से मिलता है। इसी प्रकार इसी जिले में तिरुमले के प्रख्यात जैन केंद्र में, जिसे शिलालेखों में वैकावर कहा गया है, पहाड़ी पर जैन मंदिर-समूह (चित्र १३४) है जो प्राकृतिक गुफा के भीतर और बाहर निर्मित है तथा मल्लिनाथ और नेमिनाथ को समर्पित है। यहाँ की कुषमाण्डिनी और धर्मा देवी-यक्षियाँ तथा पार्श्वनाथ की सुंदर प्रतिमाएँ तथा यहाँ के चित्रांकन विशेष उल्लेखनीय हैं । शिल्पांकनों की शैली आद्य चोल-प्रतिमाओं के अनुरूप है, जबकि ग्याहरवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के समकालीन चित्रांकन अत्यधिक परंपरागत हैं, जैसे जैन चित्रांकन प्रायः होते हैं। यहाँ भी राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण-तृतीय के राज्यकाल के उन्नीसवें वर्ष (६३७-३८ ई०) और पूर्ववर्ती चोल नरेश परांतक-प्रथम के ६१२-१३ ई० के शिलालेख मिले हैं। उत्तर अर्काट जिले में वल्लिमलै भी प्राकृतिक गुफाओं और शैलोत्कीर्ण जैन मूर्तियों से समृद्ध है (चित्र १३५ क) । इनमें से एक गुफा वर्तमान सुब्रह्मण्य-मंदिर-समूह के गर्भगृह के रूप में है किन्तु आज भी ऊपर लटकी हुई चट्टान के ललाट पर उत्कीर्ण तीर्थंकर-मूर्ति स्पष्ट दिखाई देती है। यहाँ 1 [द्रष्टव्य : अध्याय 30-संपादक.] 229 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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