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________________ मध्याय 19] दक्षिण भारत प्रदक्षिणा-पथ से युक्त प्रथम तल पर ही संभव हैं, जो चालक्य-मंदिरों की प्रचलित शैली है। भित्तियों की अत्यधिक मोटाई और अंतः तथा बाह्य भित्तियों से बननेवाले अंत:मार्ग के अभाव में यहाँ की सांधार रचना स्पष्ट नहीं बन पायी है । तथापि, इसकी अर्ध-सांधार रचना अनर्पित-हार के लिए उपयुक्त है। इससे हार के मुख और पृष्ठभागों के सर्वांगीण निर्माण में सहायता मिली है, विशेषकर अर्धवृत्ताकार पंजरों की गज-पृष्ठाकृति की रचना में जिसका अर्पित-हारों में केवल सामने का भाग ही प्रस्तुत किया जा सकता है। हार का विस्तार उसके कूटों, कोष्ठो और पंजरों सहित मण्डप के ऊपर तक है । हार के सभी अंग अलंकृत हैं। उसके देवकोष्ठों में सुंदर-सुघड़ प्रतिमाएं निर्मित हैं; उदाहरणार्थ, एक कोष्ठ में उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व के कर्णकूटों में कुबेर की प्रतिमाएँ अथवा अंतराल के सामने के कर्णकटों में पद्मासनस्थ तीर्थंकरों या अगले पैरों को खड़ा करके बैठे हुए सिंह की आकृतियाँ हैं। भद्रशालाओं की केंद्रीय नासिकाओं में भी तीर्थंकर-प्रतिमाएँ अंकित हैं, जबकि प्रत्येक शाला के दो-छोरों पर दहाड़ते हुए सिंहों का अंकन है। इसी प्रकार पंजरों के अग्रभागों पर भी तीर्थंकर-प्रतिमाएं अंकित हैं । हार-अवयवों के मध्यवर्ती द्वारांतरों में क्षुद्र-नासिकाएं निर्मित हैं, इनमें भी यक्ष-यक्षियों और भक्त नर-नारियों की प्रतिमाएं हैं। इस शृंखला में सर्वोत्तम प्रतिमा पद्मावती यक्षी की है जो महाबलीपुरम की गजलक्ष्मी की मूर्ति की मुद्रा और शैली का स्मरण दिलाती है, किन्तु अंतर इतना ही है कि इस मूर्ति में जल-स्नान करते हुए गज-युगल नहीं है। दक्षिणी अंतराल की क्षुद्र-नासिकानों पर गज-मूर्तियों का इस रूप में अंकन, जो गंग-नरेशों का राजकीय चिह्न था, इस मंदिर को गंग-नरेशों की निर्मिति सिद्ध करता है । महा-मण्डप में भी ऊपर लघु मंदिरों का हार है। इसके पूर्वी भाग के केंद्रीय लघु मंदिर की रूपरेखा द्वितल अधिरचना वाले गोपुर के समान है। इस गोपूर अथवा द्वार-शाला के दोनों ओर की क्षद्र-नासिकायों में आसीन महिलाओं की दो प्रतिमाएँ, संभवतः इस मंदिर में मानवीय प्रतिमा के सर्वोत्तम उदाहरण हैं। महा-मण्डप के साथ एक अग्र-मण्डप की रचना बाद में हुई। इस मण्डप के बाह्य द्वार में चालक्य-शैली की भव्य रूप से शिल्पांकित चौखट जड़ी हई है। मण्डप के भीतर सोलह स्तंभ स्वतंत्र रूप से स्थित हैं परन्तु उनमें से बीच के चार को छोड़कर शेष सभी मण्डप-प्रकार के शदुरम आधार और शीर्षयुक्त हैं। उनके बीच-बीच में कटु अलंकरण हैं और वे भद्रपीठों पर आधारित हैं। चारों केंद्रीय स्तंभ बीच में गोल हैं तथा उनके शिखर में कलश, ताडि और कुंभ सम्मिलित हैं । अंतिम स्तंभों पर धरन आधारित हैं क्योंकि वहाँ पालि और शिलापट्ट नहीं हैं। ये पालिशदार प्रस्तर-स्तंभ गोल भद्रासन अधिष्ठानों पर आधारित हैं और अपेक्षाकृत सादे हैं। ये स्तंभ परवर्ती चालुक्य-शैली के अलंकरण-प्राचुर्य से रहित हैं। मण्डप के मध्यवर्ती फर्श का स्तर कुछ उठा हुआ है, जबकि ऊपर की छत पर पत्रलता के घेरे में विस्तीर्ण कमल का अंकन है। केंद्रीय पूष्पासन सादा है। महा-मण्डप के भीतर की स्तंभ-पंक्तियों के समान ही, अंतःभित्तियों पर चतुर्भजी सादे अर्ध-स्तंभ हैं। मण्डप के पृष्ठभाग के अंतराल पर प्राचीन चित्रांकनों के चिह्न हैं। गर्भगृह में सेलखड़ी से निर्मित नेमिनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। उनके पीछे तिरुवाचि और दो अनुचर हैं। यह मूल प्रतिमा के स्थान पर परवर्ती स्थापन है, जैसाकि उनके पादपीठ पर लिखे अभिलेख में उल्लेख 223 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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