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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई० [ भाग 4 रूप से व्यापक रहा । यह प्रयोग वास्तव में ८५० ई० के लगभग पल्लवोत्तर मंदिरों से लुप्त हो गया, किन्तु कर्नाटक और दक्षिणापथ के चालुक्य और राष्ट्रकूट नरेशों तथा उनके उत्तराधिकारियों के विमान-मंदिरों में निरंतर प्रचलित रहा और यह मण्डप के अंतःभाग के स्तंभ के साथ इस वर्ग के मंदिरों का विशेष लक्षण हो गया। इस प्रकार अपने पाँच विमानों के साथ यह पंचकूट-बस्ती एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक बन गयी है। श्रवणबेलगोला में चंद्रगिरि पहाड़ी पर चंद्रगुप्त-बस्ती के उत्तर में कुछ दूरी पर चामुण्डरायबस्ती अथवा चामुण्डराज-बसदि (चित्र १३० ख) स्थित है जो विवेच्य अवधि के जैन मंदिरों में सर्वोपरि एवं भव्यतम कृति है और कला-कौशल की दृष्टि से किसी भी अन्य की अपेक्षा अधिक संदर है। इसका निर्माण राचमल्ल-चतुर्थ के गंग-मंत्री चामुण्डराय ने दसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में कराया था । इस मंदिर-समूह में तीन तल का पूर्वोन्मुख वर्गाकार द्राविड़ विमान (नींव पर ११.५ मी०वर्ग ) है और उसके नीचे के तलों में गर्भगृह हैं, जिनमें तीर्थंकर प्रतिष्ठापित हैं। एक छोटा अंतराल है जिसे प्रथम तल के बाहर से देखा जा सकता है, और विमान के ही समान चौड़ाई का लगभग वर्गाकार विशाल महा-मण्डप है। विमान में पाँच खण्डकों और उनके बीच में चार अंतराल हैं जो मुख्य भवन को पंचरथ आकार प्रदान करते हैं। प्रथम तल की संरचना में लघ मंदिरों की श्रृंखला, कोनों पर कर्णकट, मध्य में आयताकार कोष्ठ या शालाएं और उनके मध्य में अर्धवृत्ताकार पंजर या नीड़ निर्मित हैं। विमान-भित्ति की प्रत्येक ओर के केंद्रीय भद्रों पर तथा मण्डप के दोनों ओर मध्य में सादे और आयताकार देवकोष्ठ हैं जो खड्गासन प्रतिमाओं के लिए बनाये गये हैं। ऊपर के उत्तीर पर हंस अंकित हैं । हंसों की इस चित्र-वल्लरी पर लता-पल्लव और कमल-कलिकाएं इस प्रकार उत्कीर्ण किये गये हैं कि वे हंसों के पंख और पूंछ सदश प्रतीत होते हैं। कपोत अलंकृत है। उसपर इकहरा घुमाव है और किनारी पर छोटे-छोटे गुलाब के पुष्पों की सज्जा है। नीचे की भित्ति के अर्ध-स्तंभों की उर्ध्व रेखाओं के बीच कुडु-युगल अंकित है। सरदल की ऊपरी पंक्ति व्याल-माला के रूप में है जिसमें गज-व्याल और सिंह-व्याल अंकित हैं। विमान की भित्ति और अधिष्ठान के समान ही सरदल के भी प्रक्षेप हैं। सरदल और उसके व्यालवरि भागों पर लघु मंदिरों का हार निर्मित है जो चार कर्णकट या वर्गाकार विमान के रूप में हैं। तीन भद्रशालाएँ और अर्धवृत्ताकार पंजर उत्तर, दक्षिण और पश्चिम दिशाओं में हैं। यह हार अनपित शैली का है और मध्य तल के हय से स्वतंत्र है तथा उसे एक संकीर्ण और खुले हुए प्रदक्षिणा-पथ के द्वारा पृथक् रखा गया है। हार की यह रचना कम्बदहल्लिमंदिर के विपरीत है जहाँ हार अर्पित-प्रकार का है और जड़ाऊ कार्य के समान ऊपरी तल के हर्म्यभित्तियों से जड़ा हआ है। ऐसे अनर्पित हार मंदिरों में सांधार-शैली की दोहरी भित्तियों और प्रावत 222 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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