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अध्याय 28 ]
पश्चिम भारत
जिस कालावधि की हम चर्चा कर रहे हैं उस काल के भी कुछ मंदिर यहाँ हैं जिनमें समरसिंह और संप्रति राजा के मंदिर और मेलक-बसही नामक मंदिर उल्लेखनीय हैं। ये सभी मंदिर पंद्रहवीं शताब्दी के हैं और इनके विषय में ऊपर लिखा गया है।
जहाँ तक आबू पहाड़ी स्थित दिलवाड़ा के मंदिरों का प्रश्न है उनमें से अधिकांशतः मंदिर सन १३०० से पूर्व के निर्मित हैं। इनमें से विमल-वसही (सन् १०२१) तथा लूण-वसही (सन् १२३०) दोनों ही भारत के समूचे जैन स्थापत्य में सर्वोत्कृष्ट मंदिर होने का दावा कर सकते हैं। यहाँ हमें इस तथ्य के उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है कि दिलवाड़ा के मंदिरों द्वारा जो कलात्मक विशेषताएँ प्रस्तुत की गयी हैं वे समूचे मध्यकाल के अंतर्गत पश्चिम-भारत के जैन मंदिरों में न्यूनाधिक क्षेत्र में अपनायी जाती रही हैं। दिलवाड़ा का पित्तलहर-मंदिर भी उल्लेखनीय है जिसे भीमशाह ने चौदहवीं शताब्दी में तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिष्ठा के लिए निर्मित कराया था। इस मंदिर की विन्यास-रूपरेखा पश्चिम भारतीय नागर-शैली के मंदिरों की-सी है जिसमें गर्भगृह, गढ़-मण्डप और नवचौकी, ये तीन भाग हैं। गर्भगृह में आदिनाथ की १०८ मन (४०३१ किलोग्राम) भारी एक पीतल की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। कहा जाता है कि इस प्रतिमा का निर्माण सूत्रधार मण्डन के पुत्र देव ने किया था।
इन प्रसिद्ध मंदिर-नगरों के अतिरिक्त पश्चिम भारत में जैन धर्म के अनेक केंद्र रहे हैं जहाँ अनेक उल्लेखनीय मंदिर विद्यमान हैं। इनमें से रणकपुर का उल्लेख उसके प्रसिद्ध चौमुख-मंदिर के कारण पहले ही किया जा चुका है । रणकपुर का उल्लेख यहाँ पर उसके १५वीं शताब्दी में निर्मित दो अन्य मंदिरों के लिए भी किया जा सकता है। इन मंदिरों में से एक मंदिर पार्श्वनाथ का है जो अलंकरण रहित जगती पर आधारित है। इसकी विन्यास-रूपरेखा नागर-शैली के एक सामान्य मंदिर के समान है। इसकी गवाक्ष-यूक्त खिड़कियाँ अत्यधिक अलंकृत होने के कारण विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। राजस्थान के पश्चिम-दक्षिणवर्ती रेगिस्तानी जैसलमेर के क्षेत्रीय मंदिरों में भी जैन कला का प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ के दो मंदिरों का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है । पहला मंदिर गढ़ के भीतर सन् १५४७ में राउक जयसिंह द्वारा निर्मित पार्श्वनाथ का मंदिर है जिसमें तोरण, मण्डप और गर्भगृह जैसे सामान्य भाग हैं परंतु इसकी भित्तियों पर लगभग एक सहस्र प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। दूसरा मंदिर, सन् १६७५ में सेठ थारुशाह द्वारा निर्मित लुथेर्व का मंदिर है। यह मंदिर भित्तियों की पाषाण-निर्मित खिड़कियों पर की गयी तक्षण-कला के लिए विशेष उल्लेखनीय है । इस प्रकार का तक्षण, और वह भी इतने बड़े पैमाने पर, भारत के किसी अन्य मंदिर में मिलना दुर्लभ है। मंदिर की भित्तियाँ झरोखों से अलंकृत हैं जो इसके बाह्य दृश्य को अतिरिक्त सौंदर्य प्रदान करती हैं।
पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य पश्चिम भारत में स्थापत्य-कला के अतिरिक्त प्रतिमा-कला भी व्यापक रूप से प्रचलित रही है। इस काल में प्रतिमाओं का निर्माण पाषाण और धातु दोनों में ही होता रहा है। प्रतीत होता है कि इस काल में प्रतिमाओं का निर्माण प्रचुर संख्या में होता था। प्रतिमाओं की यह प्रचुर संख्या मंदिरों के लिए आवश्यक प्रतिमाओं की संख्या के अनुरूप रही होगी।
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