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________________ अध्याय 28] पश्चिम भारत मंदिर के मुख-मण्डप के प्रवेश-द्वार के पार्श्व में लगे एक स्तंभ पर अंकित अभिलेख के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सन् १४३६ में एक जैन धर्मानुयायी धरणाक के आदेशानुसार देपाक नामक वास्तुविद् ने किया था । इस अभिलेख में राणा कुंभा के उल्लेख से ज्ञात होता है कि इस भव्य चौमुख-मंदिर के निर्माण में कला और स्थापत्य के महान् प्रश्रयदाता राणा कुंभा का योग रहा है। यह मंदिर ३७१६ वर्ग-मीटर क्षेत्र में फैला है, इसमें उनतीस बड़े कक्ष तथा चार सौ बीस स्तंभ हैं। इससे स्पष्ट है कि इस मंदिर की योजना निस्संदेह ही महत्त्वाकांक्षी रही है। इस मंदिर की विन्यास-रूपरेखा यद्यपि जटिल है तथापि भारी या बेडौल नहीं है (रेखाचित्र २३) । जब इस मंदिर के वर्गाकार गर्भगृह से, जिसमें चौमुखी प्रतिमा स्थापित है, अध्ययन प्रारंभ करते हैं तो इस मंदिर की एक सुस्पष्ट ज्यामितीय क्रमबद्धता दीख पड़ती है। पश्चिमवर्ती पहाड़ी ढलान पर स्थित होने के कारण मंदिर के जगती या अधिष्ठान-भाग को इसके पश्चिम दिशा में यथेष्ट ऊँचा बनाया गया है। उस मंच के, जिसके अंदर कक्ष हैं, ऊपर केंद्रवर्ती भाग में वर्गाकार गर्भगह स्थित है। इसके चारों ओर की प्रत्येक भित्ति के मध्य एक-एक द्वार है। प्रत्येक द्वार रंग-मण्डप में खुलता है और इस रंग-मण्डप का द्वार एक दोतल्ले प्रवेश-कक्ष में खुलता है। इस मण्डप के बाद एक अन्य कक्ष आता है जो आकर्षक है। यह कक्ष भी दोतल्ला है; इस भाग में सीढ़ियां हैं, इसलिए इसे बलन या नाली-मण्डप कहा जाता है । लगभग ६२ मीटर तथा ६० मीटर लंबे-चौड़े क्षेत्रफल के आयताकार (प्रायः वर्गाकार) दालान जिसमें चारों ओर प्रक्षिप्त बाह्य भाग की मुख्य संरचनाएँ सम्मलित नहीं हैं, के चारों ओर की दीवार मंदिर की ऊँचाई की बाह्य संरचना में मुख्य स्थान रखती है। इस सीमा-भित्ति के भीतर की सतह पर ८६ देवकुलिकाओं (चित्र २३५) की एक लंबी पंक्ति है । ये देवकूलिकाएं अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं की स्थापना के लिए लघु देवालय के प्राकार की हैं। देवकुलिकाओं के शिखर, बाह्य ओर से देखने पर, इस भित्ति के शीर्ष पर किये गये अलंकरण से भी ऊपर निकली हुई स्तूपिकाओं की पंक्ति की भाँति दिखाई पड़ते हैं। इनसे परे मंदिर के शीर्ष पर पाँच शिखर हैं, जिनमें से सबसे बड़ा और प्रमुख शिखर गर्भगह को मण्डित किये हए है (चित्र २३६) । शेष चार शिखर चारों कोनों पर स्थित देवालयों को मण्डित किये हए हैं। इसके अतिरिक्त बीस गुंबद और भी हैं जो स्तंभाधारित प्रत्येक कक्ष के ऊपर छत के रूप में निर्मित हैं। इस पायताकार मण्डप में किसी भी प्रवेश-मण्डप से प्रवेश किया जा सकता है। ये प्रवेश-मण्डप दो तल वाले हैं और तीन ओर की भित्तियों के मध्य में स्थित हैं। प्रवेश-मण्डप अत्यंत मनोहारी हैं। इन प्रवेश-मण्डपों में सबसे बड़ा पश्चिम की ओर है जिसे निस्संदेह मुख्य प्रवेश-मण्डप माना जा सकता है। इन प्रवेशमण्डपों से होकर स्तंभों पर आधारित अनेकानेक बरामदों तथा मुख्य मण्डप को पार करते हुए केंद्रवर्ती वर्गाकार गर्भगृह तक पहुँचा जा सकता है। गर्भगृह २ मी०४३०.५ मी० लंबा-चौड़ा आयताकार (प्राय: वर्गाकार) कक्ष है जिसके चारों ओर स्तंभों पर आधारित कक्ष हैं। गर्भगृह की प्रांतरिक संरचना स्वस्तिकाकार कक्ष के रूप में है जिसमें संगमरमर की चौमुख-प्रतिमा प्रतिष्ठित है। इस मंदिर की विशेषता उसकी ऊँचाई या विशद विन्यास-रूपरेखा और उसपर सूदक्षतापूर्ण निर्माण ही नहीं वरन् उसकी विविधता तथा उसके विभिन्न भागों की बहुलता है। उसका मात्र 363 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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