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________________ अध्याय 28 ] पश्चिम भारत परंपरागत सुदृढ़ केंद्र था। सन् १३११ में चित्तौड़ की स्वाधीनता के तत्काल बाद, मेवाड़ के शासकों ने जन-समाज के और अपने प्रात्मबल को ऊँचा उठाने का कार्य हाथों में लिया। इसके लिए उन्होंने आक्रामकों द्वारा ध्वस्त प्राचीन मंदिरों का पुनरुत्थान तथा नये मंदिरों का निर्माण भी कराया। यह कहा जाता है कि मंदिर एवं भवनों आदि के निर्माण कार्यों का सूत्रपात राणा लाखा ने किया जिसका अनुसरण उसके उत्तराधिकारी राणा मोकल ने किया। किंतु राजस्थान में एक प्रकार का स्वर्णयुग राणा कुंभा (सन् १४३८-६८) के शासनकाल में आया । राणा कुंभा अपने सफल सैन्य अभियानों की भाँति ही कलात्मक सृजन कराने में प्रवीण था। उसने अपनी महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप चित्तौड़ को भव्य भवनों, प्रासादों और मंदिरों से सुसज्जित करने के लिए अनेक दक्ष वास्तु-शिल्पियों को प्रश्रय दिया। उसके बनवाये भवनों एवं मंदिरों के शीर्ष-भाग मण्डप से अलंकृत हैं। उसने सूत्रधारों (शिल्पियों) के साथ ही मध्यकालीन भारत के प्रसिद्ध वास्तुविदों तथा वास्तु-विज्ञान-ग्रंथों के प्रणेता विद्वान् लेखकों को भी सेवा में नियुक्त किया जिनमें प्रमुख शिल्पी थे। मण्डन उसके द्वारा लिखे वास्तु-विज्ञान ग्रंथों में 'प्रासाद-मण्डन' तथा 'राजबल्लभ-मण्डन' उल्लेखनीय हैं। इन भवन-निर्माण के कार्य-कलापों से मंदिर-निर्माण के एक नये युग का समारंभ हुआ। इस क्षेत्र के जैनों ने भी अर्हतों के ध्वस्त मंदिरों का पुनरुद्धार तथा नये मंदिरों का निर्माण कराकर पवित्र कार्यों के संपादन में अपने उत्साह का प्रदर्शन किया। इस काल में वास्तु-विज्ञान पर ठक्कर फेरू नामक एक जैन द्वारा सन् १३१५ में लिखे गये 'वास्तु-सार' ग्रंथ (जिसमें लेखक द्वारा दिये गये विवरण के अनुसार दिल्ली पर अलाउद्दीन खिलजी का शासन था)1 से प्रतीत होता है कि जैन पश्चिम भारत में मुसलमानों के आक्रमणों का सामना करते हए भी मंदिर-निर्माण की परंपरा को यथाविधि संरक्षित बनाये रखने में सफल रहे। वास्तु-सार में लेखक ने मंदिर की नागर-शैली को पश्चिम-भारतीय रूप में रूपांतरित करते हए उसकी विन्यास रूपरेखा तथा ऊँचाई के विस्तार का प्रतिपादन किया है। इस ग्रंथ के अनुसार मंदिर को 'प्रासाद' कहा गया है। मंदिर का अंतर्भाग मूल-गभार या गर्भगृह कहलाता था । वास्तुसार के अनुसार मंदिर की संरचना में गर्भगृह से आगे अक्षीय रेखा पर स्थित तीन मण्डप होते थे। इन तीनों मण्डपों में पहला मण्डप, जो गढ़-मण्डप (अंतराल) कहलाता था जिसे एक कक्ष का काम करता था। इसके उपरांत, मध्य भाग में एक बड़ा कक्ष होता था जिसे रंग-मण्डप, नवरंग या नृत्य-मण्डप कहते हैं जिसमें नत्य एवं नाटकीय कलाओं के प्रदर्शन किये जाते थे । तीसरा मण्डप, बलन-मण्डप या मुख-मण्डप कहलाता था जो प्रवेशमण्डप होता था, जिससे होकर मंदिर में पदार्पण किया जाता था। इसी प्रकार लंबरूप धरी के आधार पर मंदिर के तीन भाग होते थे। मंदिर का निचला आधार-भाग अधिष्ठान कहलाता था, मध्य का भाग मण्डोवर तथा ऊपरी भाग शिखर होता था जो आमलक से मण्डित होता था। यह ग्रंथ मंदिर के आधार 1 अग्रवाल (वी एस) स्टडीज इन इणियन पार्ट. 1965. वाराणसी. 271-75. वास्तु-सार के मूलपाठ एवं उसके हिन्दी अनुवाद का एक संस्करण जैन-विविध-ग्रंथ-माला सीरीज, 1936, जयपुर, से भगवानदास जैन द्वारा प्रकाशित कराया गया है. ठक्कर फेह के समय के लिए इस संस्करण का पुष्ठ 10 देखिए. 361 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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