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________________ अध्याय 28 पश्चिम भारत पश्चिम भारत को उन क्षेत्रों में परिगणित किया जा सकता है, जहाँ कलात्मक और स्थापत्यीय कार्य-कलापों ने बहत प्रारंभिक काल में विकास पा लिया था। स्थापत्यीय संरचना वाले प्राचीनतम मंदिर के भग्नावशेष समूचे भारत में अबतक मात्र राजस्थान में ही प्राप्त हुए हैं। ये भग्नावशेष राजस्थान में जयपुर के निकटवर्ती वैराट में उस गोलाकार मंदिर के हैं जिसका समय ईसा-पूर्व तीसरी शताब्दी निर्धारित किया जाता है। शिखर-मण्डित मंदिरों के विकास में भी राजस्थान का योगदान उल्लेखनीय है, जिसका साक्ष्य चित्तौड़ के निकट नगरी की खुदाई में प्राप्त पाँचवीं शताब्दी के एक मंदिर-शिखर के आमलक का भग्नावशेष देता है। प्रतीत होता है कि इस क्षेत्र ने उस नागर-मंदिरशैली को विकसित करने में योग दिया है जिसका मूलरूप गुप्त और गुप्तोत्तर-काल के प्राद्य शिखरमंदिरों में निहित है । ऐसे बहुत से कारण हैं जिनके आधार पर यह अनुमान लगाना कठिन नहीं कि लगभग पाँचवीं से लेकर आठवीं शताब्दी तक के संक्रांतिकाल के मध्य निर्मित समस्त मंदिर पूर्णतया नष्ट हो चुके हैं और जो कुछ विकसित नागर-शैली के मंदिर इस क्षेत्र में मिले हैं उनमें से अधिकांशतः मंदिरों का रचनाकाल पाठवीं से तेरहवीं शताब्दी के मध्य तक का लगाया जा सकता है। पश्चिम भारत के इतिहास में मुसलमानों के विध्वंसक अभियानों के लिए तेरहवीं शताब्दी के अंतिम तथा चौदहवीं शताब्दी के प्रारंम्भिक वर्ष उल्लेखनीय रहे हैं । बार-बार होने वाले इन अभियानों से, विशेषकर अलाउद्दीन खिलजी के अभियानों से पहले ही, राजस्थान और गुजरात में हिन्दू शासकों के गढ़ों के ध्वस्त हो जाने के कारण इन आक्रामक विजातीय मूर्ति-भंजकों की धार्मिक ईर्ष्या तथा धनलोलुपता ने पश्चिम भारत के असंख्य मंदिरों का जी भरकर विध्वंस किया। इन आक्रामकों द्वारा लाया गया यह प्रचण्ड झंझावात मात्र मंदिरों के विध्वंस तक ही सीमित नहीं रहा अपितु इसने उत्पीडित जनसमाज के हृदय एवं मस्तिष्क को भी आड़ोलित कर दिया। इस क्षेत्र का जन-समाज जब इस आघात को सहकर ऊपर उठने में सफल हुआ तो उसके अंदर कुछ नये मान-मूल्यों ने स्थापना पायी जिसके साथ उसे अपने कुछ समृद्ध पारंपरिक मान-मूल्यों को छोड़ना भी पड़ा । अतः एक प्रकार से मध्यकाल नेभावी पीढ़ियों में स्वयं ही प्रवेश पा लिया। __ मेवाड़ के गृहिला शासकों ने खिलजियों द्वारा विजित चित्तौड़ को एक दशक के मध्य ही स्वतंत्र करा लिया। यह विजित जाति की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी क्योंकि चित्तौड़ राजपूतों का एक 360 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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