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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई०
[भाग सोनागिरि, नैनागिरि, गढ़ा, गोलाकोट, पजनारी और अजयगढ़ भी उल्लेखनीय स्थान हैं जहाँ इस काल में जैन कला और स्थापत्य का विकास हुआ। पन्ना जिले के अजयगढ़ में चंदेल राजा वीरवर्मा के शासनकाल में, १२७६ ई० में, शांतिनाथ की एक महत्त्वपूर्ण मूर्ति की स्थापना हई थी। यहाँ निर्माण कार्य बाद तक चलता रहा।
नरसिंहपुर जिले के बरहटा ग्राम के समीप नौनिया में आदिनाथ, चंद्रप्रभ, और महावीर की विशाल मूर्तियाँ हैं। यह स्थान ग्यारहवीं से चौदहवीं शती तक जैन केंद्र रहा।
इस काल में पाषाण की मूर्तियों के अतिरिक्त, आदिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर आदि कुछ तीर्थकरों की धातु की मूर्तियाँ भी बनीं। सरस्वती,अंबिका, चक्रेश्वरी आदि देवियों की मूर्तियाँ भी स्वर्ण, रजत, अष्टधातु या कांस्य धातु की बनीं । ये मूर्तियाँ विभिन्न मंदिरों में और ग्वालियर, इंदौर, रायपुर धबेला और नागपुर के संग्रहालयों में विद्यमान हैं।
जैन धर्म और ललित कलाओं के विकास में जैन साधुओं और आचार्यों के योग का उल्लेख किया जा चुका है। उन्होंने साहित्य, मौखिक प्रवचनों और दृश्य कलाओं के माध्यम से ज्ञान के संवर्धन में प्रबल सहयोग दिया।
इस काल के साधुओं में प्राचार्य तारण-तरण-जी का स्थान सर्वोपरि है। विदिशा जिले में सिरोंज के समीप सेमरखेड़ी में १४४८ ई० (अपने जन्मकाल) से ही इन्होंने अपना सारा जीवन साधना में व्यतीत किया। गुना जिले में बेतवा नदी के तट पर स्थित मल्हारगढ़ में इन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिया। अपने सड़सठ वर्ष के जीवन में इस महात्मा ने मानवतावादी दृष्टिकोण से ज्ञान का संदेश प्रसारित किया जिसमें सांसारिक जीवन की विषमताओं को कोई स्थान नहीं। यद्यपि शास्त्रों, मंदिरों और तीर्थ-क्षेत्रों की उपयोगिता पर उनका विश्वास था, तथापि, उन्होंने प्राचार की भूमिका पर आधारित वैचारिक स्वातंत्र्य का समर्थन किया। उनके चौदह ग्रंथ चौदह रत्नों की भाँति उनके अनुयायियों को सांसारिक और आत्मिक जीवन में समृद्धि और दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं। सेमरखेड़ी और मल्हारगढ़ के स्मारक इस काल के अंतिम चरण के स्थापत्य का प्रतिनिधित्व करते हैं।
इस अध्याय के साथ कुछ विशेष चित्र दिये जा रहे हैं जिनसे इस काल में कला के विकास का परिज्ञान होगा।
चित्र २२७ में उज्जैन क्षेत्र से प्राप्त एक सर्वतोभद्र चित्रित है जिसमें ध्यानासन में स्थित तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। पादपीठ पर उत्कीर्ण सिंहों के शिल्पांकन में कौशल का अभाव है। सागर जिले के पजनारी और रहली के पास स्थित पटनागंज नामक स्थान इस काल में हुए कला के हास की ओर संकेत करते हैं। (चित्र २२८ क, ख)।
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