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________________ अध्याय 27 ] मध्य भारत इस काल के मंदिर स्थापत्य में, मुख्य रूप से उत्तर भारतीय नागर या शिखर शैली का प्रयोग हुआ । अनेक मंदिरों के अतिरिक्त स्तंभ मण्डपों का भी निर्माण हुआ । अलंकृत छतों के आधार के लिए उनमें शिल्पांकित स्तंभ होते थे । इस काल की मूर्तिकला की एक विशेषता है प्रचुरता; और दूसरी विशेषता है विशालाकार मूर्तियों के निर्माण में विशेष रुचि । तीर्थंकरों की विशालाकार पाषाण-प्रतिमाओं का निर्माण प्रचलित हो गया था । गोम्मट मत के उदय से इस प्रचलन को व्यापक बल मिला और श्रवणबेलगोला की उल्लेखनीय मूर्ति कदाचित् प्रेरणा-स्रोत बनी। मध्य भारत में ग्वालियर, प्रहार, बानपुर, बरहटा, देवगढ़, बहुरीबंद आदि अनेक स्थानों में विशाल मूर्तियों का निर्माण हुआ । तीर्थंकरों की मूर्तियों के अतिरिक्त शासनदेवों, नागों, नवग्रहों, क्षेत्रपालों, गंधर्वों, किन्नरों आदि की अनेकानेक मूर्तियाँ अब भी सुरक्षित हैं । सरस्वती, अंबिका, पद्मावती और चक्रेश्वरी देवियों की मान्यता तो पहले ही थी, अब और भी अनेक देवियों की मान्यताएं स्थापित हुईं। जैन पौराणिक कथाओं का और लोक-जीवन का सामान्य चित्रण समकालीन कलाकारों का रुचिकर विषय था । प्राकृतिक दृश्यों के अंकन भी यत्र-तत्र किये गये । इस काल की प्रचुरतापूर्ण तक्षण कला के प्रारंभिक रूप में मूर्तियों की एकरसता उल्लेखनीय है; तथापि, उसमें सौंदर्य-बोध का अभाव नहीं है । एक सच्चा कलाकार इसे भुला भी नहीं सकता था । देवों, देवियों, अप्सराओं आदि की कुछ मूर्तियाँ तो अंगोपांगों और भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से अत्यंत सुघड़ हैं, पर ऐसी मूर्तियों की संख्या सीमित ही है । किन्तु समूचे रूप में, तक्षण कला में सौंदर्य - बोध की यह उत्कृष्टता अक्षुण्ण न रह सकी । यही कारण है कि उत्तर-मध्यकाल की कला में वह मौलिकता, नवीनता और भावात्मक सौम्य न रह सका जो परंपरा से चला आ रहा था। ग्वालियर, नरवर, ओछा, रीवा और गोंडवाना के हिन्दू शासकों और माण्डू के सुलतानों ने ललित कलाओं को संरक्षण दिया । मध्य भारत में विद्यमान अनेक स्मारक इस काल में ललित कलाओं को प्राप्त संरक्षण के पर्याप्त प्रमाण हैं । बुंदेलखण्ड क्षेत्र में निर्माण के लिए काले ग्रेनाइट पाषाण और बलुआ पाषाण का उपयोग 'हुआ। मध्य भारत के अन्य भागों में मंदिरों और मूर्तियों के निर्माण में विभिन्न प्रकार का बलुआ पाषाण प्रयोग में आया । ग्वालियर क्षेत्र में कला संबंधी गतिविधियाँ इस काल में चलती रहीं। ग्वालियर के किले में चट्टानें काटकर निर्मित की गयी विशाल तीर्थंकर मूर्तियाँ विद्यमान हैं। ग्वालियर के तोमरों और उनके उत्तराधिकारियों ने स्थापत्य, मूर्तिकला, चित्रकला और संगीत को संरक्षण प्रदान किया । इस संबंध में मानसिंह तोमर का नाम सुपरिचित है । Jain Education International 355 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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