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________________ अध्याय 27 मध्य भारत विवेच्य काल में विदेशी शासन द्वारा उत्तरी और मध्य भारत में कला और स्थापत्य के विकास को गंभीर आघात पहुँचाया गया। किन्तु अनेक शासकों की प्रतिरोधक मनोवृत्ति के रहते हए भी भारत में धार्मिक गतिविधियाँ विकासशील रहीं। वैष्णव, शाक्त और जैन साधुओं ने जन-वर्ग को मानसिक व्यथाओं से रक्षा की। उसमें उन्होंने एक नयी आत्मिक चेतना जाग्रत की जिसने उसे जीवन के प्रति निराश नहीं होने दिया। भारत में शासकों और जन-साधारण के मध्य राजनीतिक सामंजस्य के दिनों में इन साधुओं ने सहिष्णुता और सद्भाव का संदेश प्रसारित किया। कुछ सूफी-संतों के साथ-साथ, इन साधुओं ने विभिन्न मतों के जन-वर्ग को सहयोगपूर्वक रहने के लिए उपयुक्त वातावरण के निर्माण का श्रेय अजित किया। इस काल से पूर्व ही दिगंबर और श्वेतांबर मतों के अनेकानेक देवों और महापुरुषों के विभिन्न मूत्यंकन विपुल मात्रा में निर्मित हो चुके थे। चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियों के अतिरिक्त सोलह विद्यादेवियों, चौबीस शासनदेवों (यक्षों और यक्षियों), क्षेत्रपालों, अष्टमातृकाओं, दश दिक्पालों और नवग्रहों की मूर्तियाँ भी शास्त्रविहित रूपों में बनीं। कुछ मध्यकालीन जैन शास्त्रों में चौंसठ योगिनियों, चौरासी सिद्धों और बावन वीरों का भी उल्लेख है जिन्हें प्रचलित देव-वर्ग में स्थान दिया गया। इस धर्म की आध्यात्मिक चेतना का भी देश के विभिन्न भागों में स्वागत हुआ। इस चेतना को उत्तर-मध्यकाल में मंदिरों और मूर्तियों के व्यापक विकास ने गति प्रदान की। इस काल के व्यापारी-वर्ग में जैनों की संख्या पर्याप्त थी। उद्योग और व्यवसाय की निधि प्रगति के लिए शांतिपूर्ण वातावरण अनिवार्य था। इसलिए जैनों ने अपने-अपने क्षेत्रों के शासकों को अनुकूल वातावरण बनाये रखने में अत्यधिक सहायता की और युद्धोत्तेजक प्रवृत्तियों को टालने का तो यथाशक्ति प्रयत्न किया। प्राचीन काल में भी अनेक जैन तीर्थ-स्थलों, सिद्ध-क्षेत्रों और अतिशय-क्षेत्रों ने उल्लेखनीय महत्ता अजित की। मध्य भारत में ये अधिकतर पहाड़ियों पर या सरिताओं और जलाशयों के तटों पर होते थे और कुछ तो प्रकृति की सुखद गोद में बसे थे। इस काल में सोनागिरि, द्रोणगिरि, नैनागिरि, पावागिरि आदि स्थान प्रसिद्ध हुए। इन स्थानों तथा मालवा, ग्वालियर और बुंदेलखण्ड के अन्य स्थानों पर मंदिरों का निर्माण हन्ना और विविध प्रकार की मूर्तियाँ बनीं। 354 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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