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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई० [ भाग 5 इस प्रकार के उदाहरण अनेक हैं । दक्षिण अर्काट जिले के सित्तामूर में आज भी जैन भट्टारक की गद्दी है । इसे भी इस प्रकार के उदाहरणों में प्रमुख माना जा सकता है। सित्तामूर के मंदिरों का निर्माण कार्य चोल और विजयनगर- कालों में दो चरणों में हुआ ( चित्र २०७ ) । ये एक प्राकृतिक गुफा के आसपास स्थित हैं जिसे काट-छाँटकर एक मंदिर का रूप दे दिया गया है । इस स्थान पर हाल के बने भवन भी हैं ( चित्र २०८ ) । उत्तर अर्काट जिले के करण्डै और दक्षिण प्रकट जिले के तिरुनरुनगोण्डै नामक दो और भी स्थान उल्लेखनीय हैं जहाँ इसी प्रकार का निर्माण कार्य हुआ । तमिलनाडु के सबसे अधिक प्रभावशाली मंदिर समूहों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है : चिंगलपट जिले के जिन-कांची अर्थात् तिरुपरुत्तिकुण्रम् का त्रैलोक्यनाथ मंदिर समूह; उत्तर अर्काट जिले के पोलूर तालुक में तिरुमलै की प्राकृतिक गुफाएँ एवं निर्मित मंदिर; और कोयंबत्तूर जिले के विजयमंगलम् के मूलतः गंग काल में निर्मित चंद्रनाथ मंदिर के बाह्य भाग में एक स्तंभ-युक्त मण्डप के रूप में विजयनगर-काल में किया गया संवर्धन । चिंगलपट जिले के तिरुपत्तिकुण्रम् के जिन-कांची - समूह में प्रवेश के लिए सघन प्राकार-बंध के उत्तर में गोपुर-शैली का एक विशाल द्वार है। इस समूह का महत्त्व इसलिए है कि उसके विभिन्न मंदिरों के 'दक्षिणी' विमान-शैली के गज-पृष्ठ विविध प्रकार के हैं ( चित्र २०९ ) । उदाहरण के लिए : नीचे चतुष्कोणीय और ऊपर अर्ध-वृत्ताकार, नीचे से ऊपर तक अर्ध-वृत्ताकार, नीचे से ऊपर तक वर्तुलाकार | नीचे चतुष्कोणीय और ऊपर अर्ध-वृत्ताकार, गज-पृष्ठ वाले वासुपूज्य-गर्भालय का पाषाण- निर्मित अधिष्ठान उत्तरकालीन चोलों के समय का है और इसके प्रस्तार की भित्तियाँ ईंट और चूने से बनी हैं। इस मंदिर समूह का त्रिकूट बस्ती नामक मंदिर इसलिए भी प्रसिद्ध है कि उसमें स्थापित मूर्तियाँ काष्ठ-निर्मित हैं । इसका संगीत - मण्डप अत्यधिक मूल्यवान् है क्योंकि एक तो इसमें कई अभिलेख हैं और दूसरे इसमें जैन श्री - पुराण को चित्रित किया गया है और चित्रों के साथ उनके शीर्षक भी दिये गये हैं । रंगाचारी चंपकलक्ष्मी त्रैलोक्यनाथ- मंदिर समूह में एक उन्नत प्राकार के भीतर उसी के अंतर्भाग से सटे : समूह हैं, एक भीतर की ओर मध्य में और दूसरा बाहर की ओर । हुए Jain Education International भीतर की ओर मध्य में स्थित उप-समूह में वर्धमान का एक अर्ध- वृत्ताकार मंदिर है जिसके एक ओर तीर्थंकर पुष्पदंत का और दूसरी ओर नेमिनाथ की यक्षी धर्मादेवी का मंदिर है। यह मंदिर इन दोनों मंदिरों का एक भाग बन गया है । इन तीनों का एक ही अर्ध-मण्डप और एक ही मुख 328 For Private Personal Use Only दो उप www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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