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अध्याय 24]
दक्षिणापथ और दक्षिण भारत सोमेश्वर-प्रथम के राज्यकाल का १०४५ ई०1 की तिथि-अंकित एक और महत्त्वपूर्ण अभिलेख है जिसमें वृत्तांत है कि चावण्ड गावुण्ड ने मुगड में स्वयं निर्माणित संयुक्त-रत्नाकर-चैत्यालय के दर्शनाथियों के भोजन के हेतु भूमियों का दान किया।
इस काल के, विशेषतः उत्तरकालीन चालुक्य, होयसल, यादव और काकतीय राजवंशों के, शासकों ने स्थापत्य की 'उत्तरी' और 'दक्षिणी' शैलियों को किसी सीमा तक अन्तःसमन्वित किया; होयसल और किसी सीमा तक काकतीय शासकों ने यह अधिक अच्छा समझा कि समूचे मंदिर में गर्भगह और शिखर में तो 'दक्षिणी' शैली ही अपनायी जाये पर अन्य तत्त्व ऐसे भी मिश्रित होने दिये जायें जिनकी पहचान 'उत्तरी' शैली के रूप में हो। इसके उदाहरण हैं जगती-पीठ, चतुष्की-अलिंद के साथ नवरंग या सभा-मण्डप की विन्यास-रेखा, मूल गर्भालय के अधिष्ठान के संयुक्त रथ-घटक, प्रस्तार की पट्टियों और अंतराल की प्रणालियों की इसलिए ऊर्ध्वमुखी निर्मिति जिससे संपूर्ण प्रस्तार 'दक्षिणी' विमान-शृंग की अपेक्षा 'उत्तरी' शिखर अधिक प्रतीत हो । विवेच्य काल में भी जैनों ने इस प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया किन्तु उन्होंने प्रस्तार के बाह्य अलंकरण को इतना कम कर दिया कि वास्तु-विद्या की दो प्रमुख शैलियों को स्वेच्छाचार से विलीन कर देने के दोष के भागी वह अधिक नहीं बने। प्रस्तार का बाह्य भाग प्रायः अत्यंत समतल है, केवल बंधन-घटक पर हीरक-दाम का अंकन हुआ है या फिर कर्ण और भद्र के अनुरथों में विमान-आकृतियाँ अंकित हैं। ध्वज-स्तंभों के, और प्रायः बलि-पीठों के भी, अलंकरण अत्यंत आकर्षक बन पड़े हैं; उनके साथ परंपरागत लघु-मण्डप भी होता है और ऊपर भी ब्रह्मदेव की मूर्ति होती है।
दक्षिणापथ के उत्तरी और दक्षिणी भागों को भौगोलिक दृष्टि से एकाकार कर चुकने के बाद उत्तरकालीन चालूक्यों ने यादवों, कलचरियों आदि के साथ घनिष्ठ संबंध होने तथा सिंहासन में उलटफेर के कारण 'उत्तरी' और 'दक्षिणी' दोनों शैलियों को अपनाया, यद्यपि दक्षिण और दक्षिणापथ के क्षेत्र में वे केवल 'दक्षिणी' शैली को ही अपनाये रहे। काकतीय शासक अधिकांशतः कल्याणी के चालुक्यों के अधीनस्थ और उनसे संबद्ध रहे। उनके अधीन रहकर, काकतीय वंश के संस्थापक प्रोल-प्रथम ने हनमकोण्डा-वारंगल क्षेत्र निस्संदेह जागीर के रूप में प्राप्त किया और वह मुख्य रूप से प्रांध्रप्रदेश के पूर्वी अर्धभाग पर शासन करता रहा ।
सेउण-यादव वंश का राज्य प्रारंभ में नासिक जिले में था, बाद में उन्होंने अपनी राजधानी जैतगि के शासनकाल में ११६६ ई० में देवगिरि (औरंगाबाद के समीप आधुनिक दौलताबाद) में स्थानांतरित कर ली। सिंहण सर्वाधिक प्रतापी शासक था, जो १२०० ई० में सिंहासन पर बैठा था । बाद के राजाओं में महादेव (१२६१-७० ई०) उल्लेखनीय है। अनुश्रुति है कि उसका मंत्री हेमाद्रि खण्डेश क्षेत्र में हेमादपंथी-शैली के मंदिरों के निर्माण से संबद्ध था। यह शैली वास्तव में भूमिज-शैली है जो परमारों तथा अन्य शासकों की देन है । यादव शासकों को मध्यदेश में शरण लेना अनिवार्य कर दिया
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वही, पृ 68.
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