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अध्याय 24
दक्षिणापथ और दक्षिण भारत
दक्षिणापथ की स्थापत्य-शैलियाँ
ईसवी सन् की प्रथम सहस्राब्दी का अंत मात्र एक युगांत नहीं था, उससे कहीं अधिक वह वस्तुतः देश के मौलिक चिंतन में एक प्रखर परिवर्तन का काल था, संस्कृति और धर्म के क्षेत्र में। सामाजिक रूपांतरण का भी यह ऐसा समय था जब क्षेत्रीय शासकों का नेतृत्व अलग-अलग निरपेक्ष इकाई न रहकर, अपनी प्रतिरक्षा में सतत सचेष्ट रहने लगा और विधर्मियों तथा मूर्तिभजकों से टक्कर लेने के लिए प्रतिस्पर्धी और आक्रामक हो गया था। ये शासक जानते थे कि ब्राह्मण्य विचारधारा और कला की रक्षा का भार उनपर है। दक्षिणापथ ने जैसे अचानक ही अपने वातावरण में परिवर्तन कर डाला, और कल्याणी के चालुक्यों को उनके उदीयमान प्रभाव ने पूर्वी से पश्चिमी घाटों तक पहुंचा दिया जहाँ उन्हें एक ओर कवडि-द्वीप के शिलाहारों और गोवा तथा हंगल के कदंबों से
और दूसरी ओर सेउण-यादवों, कलचुरियों और काकतीयों से पर्याप्त समर्थन प्राप्त हुआ था। उल्लेखनीय समृद्धि के अनंतर उन्हें आक्रमणकारी खिलजियों और तुगलकों के इस्लामी साम्राज्य के उमड़ते ज्वार के सामने झुकना पड़ा, और तब दक्षिणापथ में कृष्णा-तुंगभद्रा-घाटी के उत्तर में बहमनी सुलतानों ने चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में मुस्लिम राज्य को प्रायः स्थायी बना दिया।
कल्याणी के चालुक्य कला और साहित्य के सर्वोच्च संरक्षक थे। जैन धर्म तो उनके शासनकाल में उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुंच गया । लक्कुण्डी, श्रवणबेलगोला, लक्ष्मेश्वर, पटदकल आदि जैन धर्म से संबद्ध कला के विशाल केंद्र बन गये । अजित-पुराण, गदा-युद्धम् के लेखक रण्ण आदि दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के काव्यकारों ने चालुक्यों की सभा-गोष्ठियों की प्रशंसा की है। लक्कूण्डी के एक १००७ ई. के अभिलेख में गुर्जर देश पर इरिवबेडंग की विजय का वृत्तांत है जिसमें दानचिंतामणि अत्तियब्बे द्वारा स्थानीय ब्रह्म-जिनालय के लिए किये गये दानों के विस्तृत विवरण हैं। प्रसिद्ध है कि इस महिला ने उस राज्य में पंद्रह सौ जैन मंदिरों का निर्माण कराया। इस महिला के विषय में जो विवरण है वह कवि रण्ण की साहित्यिक कृतियों द्वारा समर्थित है। धारवाड़ जिले के मुगड में
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साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, 11, 13; 32-43.
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