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वास्तु-स्मारक एवं मूर्ति कला 1000 से 1300 ई.
[ भाग 5
ऋषभनाथ की प्रतिमा (चित्र १६० ख) की आकृति लयात्मक है जिसपर सूक्ष्म क्षायांकन है। यह प्रतिमा एक उल्लेनीय कलाकृति है।
इसी भण्डार से उपलब्ध कायोत्सर्ग तीर्थंकर चंद्रप्रभ (चित्र १६१ क) और शांतिनाथ की धातुनिर्मित मुद्राएँ या प्रतिमाएँ भी इसी प्रकार की विशेषताएँ लिये हुए हैं । तीर्थकर चंद्रप्रभ अपने लांछन अर्धाकार चंद्र एवं शांतिनाथ हरिण के साथ अंकित हैं । शांतिनाथ के सिर पर एक प्रकार का टोपा-सा है, जिसे तीर्थंकरों की प्रतिमाओं में कभी-कभी देखा जा सकता है । ये दोनों प्रतिमाएं ग्यारहवीं शताब्दी की प्रतीत होती हैं और संभवतः ऋषभनाथ कीपू र्वोक्त प्रतिमा के कुछ समय बाद की हैं। इसी भण्डार से एक और धातु-निर्मित तीर्थंकर-प्रतिमा प्राप्त हुई है जिसके पादपीठ पर अंकित लांछन की अस्पष्टता के कारण यह निश्चित नहीं किया जा सकता कि ये कौन-से तीर्थकर हैं। यह प्रतिमा स्थूलकाय और आकार में वामन है । इस प्रतिमा में भी तीर्थकर के सिर पर टोपा-सा अंकित है।
मयरभंज जिले के खिचिंग स्थित संग्रहालय में पाषाण-निर्मित अनेक जैन प्रतिमाएँ हैं जिनमें से अधिकांश खण्डित हैं। इन प्रतिमाओं में या तो लांछनों का अभाव है या फिर स्पष्ट नहीं है, इसलिए बहुत-सी तीर्थकर-प्रतिमाओं को पहचानना संभव नहीं है । शैलीगत रूप में इन प्रतिमाओं के लिए ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी का समय निर्धारित किया जा सकता है। महावीर की पद्मासनस्थ एक प्रतिमा को छोड़कर शेष प्रतिमाएँ कायोत्सर्ग-मुद्रा में हैं। पद्मासनस्थ महावीर सिंहासन पर आसीन हैं। पादपीठ के दोनों किनारों पर सिंह अंकित हैं, जो सिंहासन को आधार प्रदान किये हुए हैं। सिंह के मध्य में चक्र अंकित है। इन प्रतिमाओं में दो प्रतिमाएँ ऋषभनाथ की हैं। एक प्रतिमा का शीर्षभाग खण्डित है। कायोत्सर्म तीर्थंकर के पावं में दोनों ओर सेवक हैं तथा पादपीठ पर वृषभ अंकित है। एक प्रतिमा कायोसर्ग पार्श्वनाथ की है (चित्र १६१ ख) जिनके शीर्ष पर सप्त-फण-नाग-छत्र है। इस समूह की दो अन्य तीर्थकर-प्रतिमाएँ पहचानी नहीं जा सकी हैं। इनमें से एक प्रतिमा-स्तंभ पर पांच लंबरूप पंक्तियों में बीस तथा दोनों छोरों पर दो-दो तीर्थंकर-प्रतिमाएँ अंकित हैं। इस समूह में एक अत्यंत परित्कृत चतुर्मख प्रतिमा भी है।
__ मयूरभंज जिले के बारीपद स्थित संग्रहालय में धातु-निर्मित चार जैन प्रतिामएँ हैं जो संभवत: इसी क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। इनमें से तीन कायोत्सर्ग हैं तीथंकरों की हैं। इन तीनों में से मात्र एक ही प्रतिमा को पहचाना जा सका है, जो पाश्र्वनाथ की है और जिनके शीर्ष पर सप्त-फण-नाग-छत्र अंकित है। चौथी प्रतिमा एक कमनीय नारी की है। इसका दाहिना हाथ अभय-मुद्रा में हैं और बायें हाथ में एक वृक्ष की पंक्तियाँ हैं (चित्र १६२ क)। इसकी आकर्षक मुद्रा इसे एक विशिष्टता प्रदान करती है। स्पष्टतः यह एक यक्षी-प्रतिमा हैं जिसे विशेष प्रतीकों के अभाव में पहचानना संभव नहीं हैं। ये सभी प्रतिमाएँ ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी की हैं।
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