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अध्याय 21]
पूर्व भारत
इस संदर्भ में लगभग बारहवीं शताब्दी के वास्तु-शास्त्रीय ग्रंथ अपराजितपृच्छा द्वारा प्रदत्त जानकारी महत्त्वपूर्ण है । यह ग्रंथ एक शिव-मंदिर के लिए सर्वतोभद्र मंदिर के प्रकार का निर्देश देता है (सर्वत्र सर्वतोभद्र-चतुर्दार: शिवालयः)। प्रतीत होता है कि इस प्रकार के मंदिर को शैव मतावलंबियों ने उत्तरवर्ती काल में अपनाया । नेपाल के पशुपतिनाथ और वाराणसी के विश्वनाथ-मंदिरों में (जैसे वे अाज हैं) अपराजितपृच्छा द्वारा निर्देशित योजनानुरूप चारों आसन्न दिशाओं में चार प्रवेश-द्वार हैं । पशुपतिनाथ-मंदिर के गर्भगृह में चतुर्मुख लिंग स्थापित हैं। बंगाल के उत्तर-मध्यकालीन कुछ शिव-मंदिरों में योजनानुसार सर्वतोभद्र की चारों दिशाओं में प्रवेश-द्वार हैं। अपराजितपृच्छा में सर्वतोभद्र जैसे शिव-मंदिर का विवरण निष्प्रयोजन नहीं है। यह इस संभावना को भी बल दे सकता है कि शैवों ने शिव-मंदिरों के लिए सर्वतोभद्र-योजना को जैनों से ग्रहण किया है।
इससे ज्ञात होता है कि सर्वतोभद्र-प्रकार के मंदिरों का प्रभाव संप्रदायगत सीमाओं से परे भी गया, जिसके आधार पर बने उल्लेखनीय मंदिर अन्य धर्मों तथा देश-विदेश में भी पाये जाते हैं। यह उपरोक्त सर्वेक्षण अभी अपनी प्राथमिक अवस्था में है अत: इसके लिए पूरी तरह से खोज-बीन किये जाने की आवश्यकता है।
उड़ीसा
विवेच्य कालखण्ड के अंतर्गत पूर्व-मध्यकालीन उड़ीसा में एक महत्त्वपूर्ण मूर्तिकला-शैली पल्लवित हुई जो बंगाल एवं बिहार की पूर्व शैली (पाल शैली) के समान ही उल्लेखनीय है । इस शैली ने पालशैली की कुछ विशेषताओं को अपने में समाहित किया। इन्हें विशेष रूप से इसकी उपासनापरक प्रतिमाओं में देखा जा सकता है। पाल-शैली की ये विशेषताएँ उन क्षेत्रों में अधिक घनिष्ट रूप से पायी गयी हैं जो पाल-शैली की क्षेत्र-सीमा के निकटवर्ती हैं। बहुत कुछ पाल-शैली के लय-अनुशासन की दुर्बलता के परिष्कार के फलस्वरूप यह शैली इसमें पायी है । इस काल की उड़ीसा की जैन प्रतिमाओं को इसी प्रवृत्ति में बँधी देखा जा सकता है। मंदिर को भित्तियों के शिल्पांकनों में एक सशक्त सुघट्य शैली तथा विशेष नाटकीय अंकन का विकास भी उड़ीसा में हा जिसका विनियोग सामान्यतः जैन मंदिरों में नहीं देखा जाता।
उड़ीसा से प्राप्त तत्कालीन मूर्ति-शिल्पों में सामान्यतः तीर्थंकरों की एवं कुछ यक्षियों की प्रतिमाएं हैं जो पाषाण-निर्मित भी हैं और धातु-निर्मित भी। कुछ प्रतिमाओं का, जो स्पष्टतः इस काल की हैं, विवेचन अध्याय १५ में किया जा चुका है। यहाँ पर उदाहरण के लिए धातु-निर्मित ऋषभनाथ तथा पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं का उल्लेख किया जा सकता है जो बानपुर के भूमिगत भण्डार से प्राप्त हुई थीं और जो इस समय भुवनेश्वर स्थित उड़ीसा राज्य संग्रहालय में संरक्षित हैं। इनमें से किसी भी प्रतिमा का समय ग्यारहवीं शताब्दी से पूर्व का निर्धारित नहीं किया जा सकता।
1 अपराजितपृच्छा. गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज़, 65. 1950. बड़ौदा. अध्याय 134, छंद 4.
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