SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 83
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय 6 ] मथुरा थे। विविध-तीर्थ-कल्प से ज्ञात होता है कि नेमिनाथ का मथुरा में एक विशिष्ट सम्माननीय स्थान था। कुषाण और कुषाणोत्तरकाल की अनेक मूर्तियों में इस तीर्थंकर को कृष्ण और बलराम के साथ दिखाया गया है। विवागसूय से ज्ञात होता है कि महावीर मथुरा गये थे और उन्होंने वहाँ अपने प्रवचन किये थे। अपने इस मथुरा-विहार में वह संभवतः भण्डीर-उद्यान में ठहरे थे जो सुदर्शन नामक यक्ष का पावन स्थल था। प्राचीन जैन पुरावशेष ये परवर्ती साहित्यिक परंपराएँ तो अभी अन्य प्रमाणों द्वारा सिद्ध की जानी हैं, किन्तु पुरातत्त्वीय सामग्री के आधार पर इतना निश्चित है कि ईसा-पूर्व द्वितीय शताब्दी तक मथुरा में जैन धर्म दृढ़ता से स्थापित हो चुका था। इस क्षेत्र में अनेक राजनैतिक परिवर्तन होते रहे जिनके परिणामस्वरूप पहले तो वहाँ रञ्जुवुल और शोडास (शोण्डास) के अधीन शक सत्रपाल वंश के शासन की स्थापना हुई और अंततः कुषाणों का आधिपत्य स्थापित हुआ, किन्तु इन राजनीतिक परिवर्तनों के होते हुए भी जैन धर्म की यहाँ निरंतर अभिवृद्धि होती रही। कुषाणों के शासनकाल में मथुरा असाधारण रूप से वैभवसंपन्न एवं जनाकीर्ण नगर हो गया था और ब्राह्मण, बौद्ध तथा जैन मतों की समृद्धि के लिए अनुकूल भूमि सिद्ध हुआ। वस्तुतः कुषाणकाल में इस विश्वनगर की शिल्पशालाओं में सृजनात्मक प्रक्रिया अपने चरमोत्कर्ष पर जा पहुंची, जिसका परिणाम यह हुआ कि यह महत्त्वपूर्ण धर्मक्षेत्र कला एवं स्थापत्य का एक उर्वर केन्द्र बन गया । वैश्यों, विशेषकर अति समृद्ध व्यापारी वर्ग की धन-सम्पत्ति का जैन वास्तु-स्मारकों की समृद्धि में अत्यधिक योगदान रहा । इस वर्ग में श्रेष्ठी, सार्थवाह, वाणिज, गंधिक आदि सम्मिलित थे और सामान्य भक्तजनों की संख्या में उनका प्रतिशत बहुत ऊँचा था। यह बात व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग में रत परिवारों के समर्पणात्मक अभिलेखों से प्रमाणित हो जाती है । इसके साथ ही यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि केवल मथुरा के ही नहीं, अपितु उत्तरी भारत के एक विशाल भू-भाग के विभिन्न मतों और पंथों के अनुयायियों ने उस युग के कलाकारों से कला-कार्य की अनवरत माँग जारी रखी। यही कारण है कि उनके पास अपनी कृतियों पर विशेष ध्यान देने के लिए कोई समय नहीं बच पाता था और उन्हें विवश होकर यंत्रवत् विशाल स्तर पर सर्जन करना पड़ा, जिसका उनकी कलात्मक प्रतिभा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। मूर्तियों को केवल रूढ़िगत रूप ही नहीं दिया गया अपितु वे प्रायः नीरस और आकर्षणहीन रहीं। प्रस्तुत अवधि की मथुरा की कला-शैली निश्चय ही मूल रूप से भारतीय रही, जिसमें मध्य देश की युगों प्राचीन कला-परंपरा के मूल और पल्लवन तथा यक्षों की पुरातन मूर्तियों और भरहुत तथा सांची के वैशिष्ट्य का योगदान था। तथापि, उत्तर-पश्चिम 1 विविध-तीर्थ-कल्प. पृ 85. 2 वैद्य (पी एल). विवागसूय. 1933. पूना. पृ 45. 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy