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________________ अध्याय 5 ] जैन कला की प्राचारिक पृष्ठभूमि सुयोग्य बनाती है । बहुधा जैन कलाकृतियाँ उन महान् संकल्पनात्रों की प्रतीक होती हैं जिनसे नैतिक भावनाएं विकसित होती हैं । वह कलाकृति किस काम की जो कोई नैतिक सीख न दे सके और जो स्त्री-पुरुषों को श्रेष्ठतर जीवन की राह अपनाने में सहायक न हो ? वास्तव में जैन कलाकृतियों का उद्देश्य हमारी प्रात्मिक वृत्ति का उन्नयन करना, धार्मिक मूल्यों की ओर प्रेरित करना और जैन दर्शन की दार्शनिक संकल्पनात्रों तथा उसके आचार-नियमों को मूर्त रूप में प्रस्तुत करना है । वे मुमुक्षु को अपने से तादात्म्य स्थापित करने और उस उच्च प्रात्मिक विकास में सहायक होती हैं जिसके लक्षण हैं- अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य और अनंतसुख । जैन पाण्डुलिपियों में, जिनमें से कुछ तो ताड़पत्र पर और अन्य कागज पर लिखी गयी हैं, बड़े परिमाण में सूक्ष्म चित्रकारी की गयी है । हमारी सांस्कृतिक विरासत के इतिहास में समकालीन वेशभूषा आदि तथा विभिन्न क्षेत्रों में चित्रकला के क्रमिक विकास के प्रमाण के रूप में तो उनकी महत्ता है ही, किन्तु जिन प्रसंगों को उनमें चित्रित किया गया है वे धार्मिक भावना जगाते हैं तथा उनका आचारिक महत्त्व है । उनमें चित्रित है नंदीश्वर द्वीप, अढ़ाई द्वीप, लोक स्वरूप, तीर्थंकरों के जीवन से संबंधित आख्यान - - यथा, नेमिनाथ की बरात, तीर्थंकर की माता के स्वप्न, पार्श्वनाथ पर कमठ का उपसर्ग आदि, समवसरण, आहार-दान, गुरू द्वारा शास्त्रपाठ इत्यादि । उनसे जिन कुछ प्रमुख विषयों की सूचना मिलती हैं वे हैं - स्व की तुलना में जगत की विशालता, अपने कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धांत और सत्पात्र को आहार, शास्त्र आदि दान करने जैसे पावन कर्तव्य । शास्त्रों में वर्णित उपदेशों को रंगों के माध्यम से इन चित्रों में दृश्यरूप में उतार दिया गया है ताकि धार्मिक जन अपने जीवन में इनका प्रभाव और अच्छे रूप से ग्रहण करें । वे सभी गुफाएँ (चाहे वे अलंकृत चित्रांकन युक्त हों या उनके बिना ), जिनमें से कुछ ने कालांतर में गुफा मंदिरों का रूप ले लिया, और शिलालेख युक्त निषिधि - चौक हमें जैन साधुत्रों के संयमित जीवन और उक्त शिलालेखों में वर्णित उनके स्वेच्छया मृत्युवरण या सल्लेखना का स्मरण दिलाते हैं । इस प्रकार के स्मारक सांसारिक बंधनों के प्रति अनासक्ति की भावना को आदर्श रूप प्रदान करते हैं । श्रवणबेलगोल- जैसे स्थानों पर उत्कीर्ण शिलालेख उन संतों, गृहस्थों और गृहणियों की महिमा का वर्णन करते हैं जिन्होंने विहित परिस्थितियों और अवस्थाओं में धार्मिक निष्ठापूर्वक मृत्यु का वरण कर अनासक्ति की उदात्त भावना का परिचय दिया । भारतीय मूर्तियों में हमें अत्यंत साधारण से लेकर अत्यंत कलात्मक, अलंकार विहीन से लेकर अलंकृत तथा गंभीर से लेकर रौद्र रूपवाली ऐसी मूर्तियाँ मिलती हैं जो अपने समय की सामाजिक-धार्मिक भावना तथा समृद्ध समाज का प्रतिबिम्बन कराती हैं । प्रायः आरंभ से ही, जैन धर्म मूर्तिपूजा से सम्बद्ध रहा है, यह बात यदि अवश्यंभावी नहीं तो स्वाभाविक अवश्य थी । तीर्थंकर आध्यात्मिक आदर्श रहे हैं । उनके महान् गुणों को मूर्त रूप देने और उनमें भक्ति प्रकट करने, उनकी आराधना करने और उनके गुणों को अपने में विकसित करने के लिए तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनाना सरल ही था। कालांतार में, यह सादगीपूर्ण प्रतिमा-पूजन आराधक के साधनों के अनुसार अत्यन्त Jain Education International 45 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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