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________________ प्रास्ताविक [भाग 1 अपने में उन महान् गुणों का विकास और उपलब्धि कर सके जो कि परमात्मा में पाये जाते हैं क्योंकि वही प्रत्येक प्रात्मा की चरम आध्यात्मिक परिणति है। तत्वार्थसूत्र के मंगलाचरण में इस तथ्य की बड़ी अच्छी अभिव्यक्ति हुई है : मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये ।। जैन पंचपरमेष्ठियों की उपासना करते हैं। ये पंचपरमेष्ठी हैं-(१) अर्हत् अर्थात् चौबीस तीर्थकर; (२) सिद्ध - मुक्तात्मा; (३) प्राचार्य -- धर्मगुरु (सामान्यतः प्राचार्य के प्रतीकात्मक चित्रण द्वारा जिसे स्थापना कहा जाता है); (४) उपाध्याय - शिक्षक; और (५) साधु - सांसारिक संबंधों से विरत मुनि जिनकी अपनी-अपनी विशेषताएं हैं (देखिए : दव्वसंगह गाहा, ५०-५४) । इनका स्मरण करने और इनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए विभिन्न मंत्रों या अक्षरों का प्रयोग होता है (पूर्वोक्त, ४६) । इन परमेष्ठियों के नामों के प्रथमाक्षरों से पवित्र ॐ का निर्माण होता है जिसकी बड़ी धार्मिक महत्ता है। धर्म की दृष्टि से विचार करने पर वास्तव में प्रथम दो (परमेष्ठियों) की ही आराधना की जाती है। इन दोनों में मुख्यतः प्रथम कोटि के अंतर्गत पानेवाले चौबीस तीर्थंकरों की उपासना की जाती है। इन तीर्थंकरों की विस्तृत जीवनियाँ भी अनेक तथ्यों को समाविष्ट करते हुए मिलती हैं। इनकी स्तुति में अनेक गाथाएँ रची गयी हैं जिनमें उनसे कोई वरदान नहीं माँगा गया है। किन्तु जो भक्त इन गाथाओं का पाठ करता है वह अपने में इन परमेष्ठियों के महान् गुणों को विकसित करने की कामना करता है। तीर्थंकरों के प्रति भक्ति प्रकट करने के लिए अनुष्ठान - अनेक प्रकार की पूजाएँ आदि - किये जाते हैं। इन सबका उद्देश्य है धार्मिक क्रियाकलापों द्वारा आत्मशुद्धि और अंततः कर्मों से छुटकारा पाना ताकि आत्मा परमात्मा बन सके । जैन आचार-शास्त्र का उद्देश्य राग-द्वेष, आसक्ति और घृणा, जिनके दूसरे रूप चार कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ हैं, का नाश कर आत्मविकास करना है । इनका निग्रह कर आत्मा परमात्मपद की प्राप्ति की ओर बढ़ सकती है। दूसरे शब्दों में व्यक्ति अपनी सर्वोच्च आत्मिक स्थिति की ओर पग बढ़ाता है। मानव जीवन के चार पुरुषार्थों में धर्म को काम और अर्थ की तुलना में अधिक महत्त्व दिया जाना चाहिए क्योंकि धर्म ही व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति कराता है या कर्मों से मुक्ति दिलाता है। और यही तो व्यक्ति का सर्वोच्च लक्ष्य है। तीर्थंकर की उपासना का अर्थ है अनेक सद्गुणों को अपनी पूर्ण शक्ति और निष्ठापूर्वक अपने में उतारना; यथा, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह तथा व्रत-उपवास आदि। उक्त आचारिक संकल्पनाओं में से अधिकांश की अभिव्यक्ति जैन कला और स्थापत्य में किसी न किसी रूप में हुई है। जैन कला न केवल सौंदर्य के प्रति सुरुचि - जिस सीमा तक वह उसका उन्नयन कर सकती है - को प्रतिबिंबित करती है, वरन् वह मानव की आत्मिक वृत्ति को भी ऊंचा उठाती है एवं अन्य व्यक्तियों का सम्मान करनेवाले मानव समाज के सदस्य के रूप में उसे और भी 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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