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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई० [ भाग 4 जड़ दी गयी हैं ( चित्र १०७ ) । गर्भगृह की रूपरेखा पंच-रथ प्रकार की है, जिसमें पंच-रथ प्रकार का ही एक बृहद रेखा - शिखर है ( चित्र १०८ ) । शिखर के सामने शुकनास है । इस मंदिर का वाह्य अलंकरण विशिष्ट प्रकार का है, जिसमें जंघाभाग पर जाल - वातायन और कुड्य एकांतर क्रम से निर्मित हैं । जालवातायन में देवकोष्ठ जड़े हैं, जिनके ऊपर उद्गम उत्कीर्ण हैं । जंघा के चारों ओर देवकोष्ठ जिनमें तीर्थंकरों और उनसे संबद्ध २४ यक्षियों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं । जंघा के तीनों भद्रों पर घनद्वार चित्रित हैं । जैसा कि अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है, यह मंदिर तीर्थंकर शान्तिनाथ को समर्पित किया गया था। मंदिर में तीर्थंकर शान्तिनाथ की कायोत्सर्ग प्रतिमा स्थापित है, जो पाँच मोटर से अधिक ऊँची है और गर्भगृह की पूरी ऊँचाई के लगभग है। मूर्ति एक विशाल परिकर से युक्त है, जिसके पार्श्वों में चमरधारियों की स्मितमुख प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं, जो त्रि-भंग की आकर्षक मुद्रा में खड़ी हुई हैं। इसके अतिरिक्त अंबिका यक्षी की चार पृथक् प्रतिमाएँ हैं, जो चमरधारियों की भाँति मनोरम त्रि-भंग - मुद्रा में खड़ी है । इनमें से दो प्रतिमाएँ गर्भगृह के अंतःभाग में स्थित हैं और दो बहिर्भाग में । ये सभी प्रतिमाएँ नौवीं शती की उत्कृष्ट प्रतीहार शैली में उत्कीर्ण हैं । मंदिर क्रमांक १५ एक त्रि- पुरुष - प्रासाद ( तीन मंदिर का समूह ) है । इसका शिखर नष्ट हो चुका है और मूल शिखर के स्थान पर अब बुंदेल शैली की एक कुरूप छतरी पड़ी है । मंदिर का वेदी-बंध नीचा है तथा जंघाभाग सादा है, किन्तु इसपर उद्गमों से प्राच्छादित कम उभार की उत्कीर्ण मूर्तियों से युक्त देवकोष्ठ हैं। तीनों गर्भगृहों के लिए एक ही नवरंग मण्डप की योजना हुई है । इसमें मुखमण्डप के द्वार से प्रवेश किया जाता है । मण्डप का समतल वितान चार केंद्रीय स्तंभों तथा बारह कुड्य-स्तंभों पर आधारित है । स्तंभ और कुड्य स्तंभ- घट - पल्लव, पद्म- पिण्ड, ताल-वृन्त तथा आमलक जैसे प्रतीहारकालीन विशिष्ट अलंकरणों से सुसज्जित हैं । इसी प्रकार प्रवेशद्वार भी प्रतीहारकालीन विशेष अलंकरणों से अलंकृत हैं जिनमें घण्टा किंकिणि के चित्रण सम्मिलित मंदिर की मूलनायक पद्मासन तीर्थंकर - प्रतिमा पूर्व - मध्यकालीन कला की एक श्रेष्ठ कृति है जिसके मुखमण्डप से प्रात्मिक शांति और तपश्चर्या की दीप्ति प्रभासित हो रही है । सूक्ष्म प्रतिरूपण एवं भाव-संयोजन के लिए यह प्रतिमा सारनाथ की गुप्तकालीन बुद्ध की प्रसिद्ध प्रतिमा के समकक्ष है । इस मंदिर के भद्रों पर निर्मित देवकोष्ठों में अंकित खड्गासन तथा पद्मासन प्रतिमाएँ भी नौवीं शती की प्रतीहारकला की विशिष्ट कृतियाँ हैं । यह मंदिर शैली के अनुसार मंदिर क्रमांक १२ से लगभग दो दशक परवर्ती है । । इस Jain Education International 186 For Private & Personal Use Only कृष्णदेव www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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