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________________ अध्याय 16 ] मध्य भारत अभिलेखों से इनकी निर्माण-तिथि ज्ञात होती है। ये विशाल कक्षीय मंदिर चैत्यवासीय स्थापत्य के नमूने हैं, जो मध्य भारत के रणोद, कद्वाह तथा सुर्वाया जैसे स्थानों के शैव-मठों के अनुरूप हैं। मंदिर क्रमांक ५ एक विशेष प्रकार के शिखर से मण्डित है तथा इसके भीतर एक विशाल सहस्र कूट विद्यमान है। इस मंदिर में विक्रम संवत् ११२० का अभिलेख उत्कीर्ण है। यह मंदिर, मंदिर क्रमांक ३१ के अतिरिक्त, इसी कालखण्ड के अंतर्गत आता है । यहाँ उपलब्ध अनेक वास्तु-अवशेष और स्तंभ, जिनमें से कुछ मंदिर क्रमांक १२ के आस-पास पड़े हैं, अपनी विशेषताओं के आधार पर दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दियों के हैं। छोटे तथा पतले शिलाफलकों से निर्मित लघु मंदिर बारहवीं शताब्दी के माने जा सकते हैं। ये हैं मंदिर क्रमांक १८ (चित्र १०५), २१, २५, २६, २७ (ख) तथा ३० । मंदिर क्रमांक २१ में गुणनंदी-समूह के दो अभिलेख हैं, जिनका समय बारहवीं शताब्दी निर्धारित किया जा सकता है। इस मंदिर में कुछ प्रतिमाएँ भी स्थापित हैं (चित्र १०६)। शेष मंदिर क्रमांक ४,६, ८, १२ (ग) तथा १४ बारहवीं शताब्दी से परवर्ती हैं। इन मंदिरों की प्रमुख विशेषता यह है कि ये ईंट जैसे छोटे-छोटे प्रस्तर-फलकों से निर्मित हैं, जिनकी चिनाई में सामान्यत: चूने का उपयोग हुया है। मंदिर क्रमांक ६, १३, १५, १८ तथा २० समूहगत मंदिर हैं। विचाराधीन अवधि में ही इनकी मरम्मत की गयी थी और उसी समय मंदिर क्रमांक ४ तथा १५ के आगे प्रवेशमण्डपों का भी निर्माण किया गया। साथ ही, इसमें भी संदेह नहीं कि बहुत-से मंदिरों में बुंदेला युग में अकबरकालीन स्थापत्य शैली की छतरियों, उपशिखरों, मण्डपों तथा मुण्डेरों का अतिरिक्त निर्माण किया गया। केवल दो मंदिरों, क्रमांक १० और १५ में वास्तु-अलंकरण देखने को मिलता है । दोनों ही मंदिर नौवीं शती के हैं। शेष मंदिर अपनी द्वारशाखाओं को छोड़कर अधिकांशतः अलंकरणविहीन हैं। मंदिर क्रमांक १२ तथा २८ पर रेखा-शिखर हैं। शेष मंदिर अधिकांशतः समतल शिखर-युक्त विशाल कक्षीय हैं, या फिर वे प्रवेश-मण्डपयुक्त मंदिर हैं जो गुप्तकालीन मंदिरों के समान हैं जिनमें मात्र एक समतल शिखरयुक्त गर्भगृह तथा प्रवेशमण्डप होता था। देवगढ़ में मूर्तियाँ, मानस्तंभ और अभिलेख प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं । यहाँ पर मंदिरों तथा खुले स्थान में उपलब्ध प्रतिमाओं की संख्या एक हजार से ग्यारह सौ तक के लगभग है। इनमें से एक तीर्थंकर-प्रतिमा निश्चित रूप से गुप्तोत्तरकालीन (लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दियाँ) है, जबकि लगभग ५० प्रतिमाएँ नौवीं शती की हैं, जिनमें मंदिर क्रमांक १२ और १५ की मूल प्रतिमाएँ भी सम्मिलित हैं । लगभग इतनी ही संख्या में दसवीं शती की प्रतिमाएँ हैं । शेष प्रतिमाएँ अधिकांशतः ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दियों की हैं। मंदिर क्रमांक १२ एक सांधार-प्रासाद है, जिसमें गर्भगृह, प्रदक्षिणापथ और अंतराल सम्मिलित हैं । इस मंदिर के चारों ओर एक आधुनिक प्रकार की रचना की गयी है, जिसमें प्राचीन मूर्तियाँ 185 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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