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________________ अध्याय 16 ] मध्य भारत है। [त्रिपूरी में आज भी तीर्थंकरों (चित्र ९७ ख) तथा यक्षियों की अनेक प्रतिमाएँ पड़ी हई हैं। इनमें एक तीन यक्षियों का प्रतिमा-समूह (चित्र ८ क) भी है जिसके पादपीठ पर किसी वीरनंदी का अभिलेख लगभग नौवीं शताब्दी की लिपि में उत्कीर्ण है--संपादक] नागपुर संग्रहालय में प्रदर्शित राजनपुर-खिखिनी से उपलब्ध जैन प्रतिमा-समूह में सरस्वती की एक नौवीं शताब्दी की मूर्ति है जिसमें उनके स्तन असंगत रूप से बड़े हैं । मूर्ति में विलक्षण कठोरता है। इस प्रतिमा-समूह में नौवीं शताब्दी की तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं शान्तिनाथ की दो कायोत्सर्ग प्रतिमाएं भी हैं जिनपर गंग-कला-शैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। मालवा क्षेत्र के देवास जिले में गंधावल लगभग नौवीं शताब्दी की कलात्मक रूप से उत्कृष्ट प्रतिमाओं (चित्र १८ ख) का विशिष्ट केन्द्र है। तीर्थंकर की एक विशाल कायोत्सर्ग प्रतिमा भी प्राप्त हुई है, जिसके पार्श्व में इंद्र और उपेंद्र चमरधारी के रूप में अंकित हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ से तीर्थंकर शान्तिनाथ, सुमतिनाथ एवं सुविधिनाथ तथा विद्या-देवियों और यक्ष-यक्षियों की प्रतिमाएँ भी प्राप्त हुई हैं। रायपुर संग्रहालय में सहस्रकूट की एक उल्लेखनीय चौमुखी मूर्ति प्रदर्शित है। इसमें पाँच स्तर हैं । प्रत्येक स्तर में तीर्थंकरों की भामण्डलयुक्त पद्मासन प्रतिमाएँ पंक्तिबद्ध हैं (चित्र ६६)। जैन प्रबंधों के अनुसार ग्राम नामक नरेश ने, जो नौवीं शताब्दी में कन्नौज और ग्वालियर पर शासन करता था, कन्नौज में एक मंदिर का निर्माण कराया था, जो १०० हाथ ऊँचा था और जिसमें उसने तीर्थंकर महावीर की स्वर्णप्रतिमा स्थापित करायी थी। उसने ग्वालियर में २३ हाथ ऊँची महावीर की प्रतिमा भी स्थापित की थी। यह भी कहा जाता है कि उसने मथुरा, अनहिलवाड़, मोढेरा आदि में भी जैन मंदिरों का निर्माण कराया था । जैन परंपराओं में उल्लिखित नरेश प्राम प्रतीहार नागभट-द्वितीय (मृत्यु ८८३ ई०) रहे होंगे जो जैन धर्म के प्रति अपनी आस्था के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इस जैन परंपरा की सत्यता इन स्थानों से प्राप्त प्रारंभिक मध्यकालीन जैन अवशेषों द्वारा प्रमाणित होती है। तोमरकालीन शैलोत्कीर्ण विशाल जैन प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध ग्वालियर के किले में अंबिका यक्षी और गोमेध यक्ष की शैलोत्कीर्ण सपरिकर प्रतिमाएं उपलब्ध हैं । ललितासन में बैठी अंबिका के पार्श्व में उनकी सेविकाएँ हैं। इन प्रतिमाओं का निर्माणकाल लगभग आठवीं शताब्दी निर्धारित 1 शाह (यू पी). स्टडीज इन जैन पार्ट. 1955. बनारस. चित्र 42. 2 मजूमदार (आर सी) तथा पुसालकर (ए डी), संपा. एज प्रॉफ इंपीरियल कन्नोज. 1955. बम्बई. पृ 289. 177 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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