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अध्याय 15]
पूर्व भारत
कुछ वर्ष पूर्व पार्श्वनाथ की एक, और ऋषभनाथ की दो मूर्तियाँ महानदी की सहायक कटझुरी नदी में मिली थीं। उनमें से एक लापता है और दो कटक से १० किलोमीटर दूर स्थित प्रतापनगर के एक बाबाजी के संरक्षण में हैं।।
मूर्तिकला के माध्यम से ज्ञातव्य आद्येतिहास काल से उत्तर-मध्यकाल तक उड़ीसा का इतिहास महत्त्वपूर्ण है । इस अध्याय में वर्णित पूर्व-मध्यकाल की चर्चा करते हुए कहा जा सकता है कि आठवींनौवीं शताब्दियों तक जैन और जैनेतर मतों की मूर्तियों पर गुप्त-शैली का प्रभाव बना रहा । परवर्ती शताब्दियों में स्थानीय शैलियों का प्रभाव रहा, जिससे कि तेरहवीं शती के पश्चात् शैली के स्तर में ह्रास प्रारंभ हो गया।
बिहार
सातवीं शती में हनसांग ने अपने बिहार-भ्रमण के समय राजगिर में जैन और बौद्ध दोनों धर्मों की समृद्धि देखी थी। उसने यह भी देखा कि राजगिर स्थित बहत-से दिगंबर तपस्वी अपनी 'मुनिचर्या' का पालन सूर्योदय से सूर्यास्त तक किया करते थे।
राजगिर में जैनों का सर्वाधिक पवित्र स्थान वैभार पहाड़ी है, जिसकी अधित्यका पर एक प्राचीन जैन मंदिर के अवशेष विद्यमान हैं (चित्र ८६ ख) । अवशिष्ट मंदिर में एक मध्यवर्ती कक्ष है, जिसके चारों ओर कोठरियों सहित बरामदा है। मध्यवर्ती कक्ष और कोठरियों में मूर्तियों के लिए देवकूलिकाएँ बनी हुई थीं।
चंद्रगुप्त-द्वितीय के समय की नेमिनाथ की मूर्ति (पृ १२८) के अतिरिक्त, ऋषभनाथ की पद्मासन मूर्ति (चित्र ६० ख) विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इस तीर्थकर-मूर्ति में जटा-मुकुट दिखाया गया है । मूर्ति के पादपीठ पर दो वृषभ और एक धर्म-चक्र अंकित है। यह मूर्ति अत्यंत महत्त्व की है, क्योंकि उसके पादपीठ पर उत्कीर्ण एक अभिलेख की पुरालिपि से उसके निर्माणकाल के निर्धारण में सहायता मिलती है । आठवीं शती की कील-शीर्ष लिपि में उत्कीर्ण इस अभिलेख का पाठ इस प्रकार है : प्राचार्य-वसन्तनन्दिर् (नो) देधर्मो=यः (दया-धर्मो यम), जिसका अर्थ है कि यह मूर्ति मुनि
1 इस लेखक को यह सूचना उसके कटक-प्रवास के समय प्राप्त हुई। 2 बील, पूर्वोक्त, 1884, पृ 149. 3 कुरैशी (एम एच) तथा घोष (अमलानन्द). राजगिर. 1958. नयी दिल्ली. पु 16-17. [मंदिरका निर्माणकाल
अनिश्चित है। ईटों से बने इस मंदिर का उपयोग प्रारंभिक गुप्त-काल से ( 129) से पाठवीं शती तक के विभिन्न युगों की मूर्तियों के संग्रह के लिए किया जाता था-संपादक]
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