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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई० [ भाग 4 उत्कीर्ण हैं, उनमें से कुछ अपने पशु वाहनों पर आरूढ़ दिखाई गयी हैं । मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से यह द्रष्टव्य है कि बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत की शासनदेवी बहुरूपिणी शय्यासीन है । 1 खण्डगिरि की अधिकांश गुफाओं में गुफा सं० ८ से आगे की गुफाएँ सं० ६ ( त्रिशूल, सातबा या महावीर जैसे विविध नामों से प्रसिद्ध ), १०, ११ ( ललाटेन्दु केसरी, जिसमें उद्योतकेसरी का अभिलेख है) और १२ से १५ बड़ी मात्रा में उत्खनन के कारण अत्यधिक क्षतिग्रस्त हुई हैं । परिणामस्वरूप उनकी मूल रूपरेखा ही नष्ट हो गयी है और उनमें से कुछ की मूर्तियों को अब बहुत निचले स्तर से खड़े होकर ही देखा जा सकता है । ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दियों की ये तीर्थंकर - मूर्तियाँ और उनके कुछ समय उपरांत की शासनदेवियों की मूर्तियाँ मूर्तिविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं । गुफा सं० ε में ऋषभनाथ की हरित पाषाण से निर्मित तीन खड्गासन मूर्तियाँ रखी हैं, जो निश्चित रूप से किसी अन्य स्थान से लाकर पादपीठों पर रखी गयी हैं । वे उस समय की हैं, जब उड़ीसा में मूर्तिनिर्माण के लिए हरित पाषाण का उपयोग बहुत अच्छा माना जाता था । इसके पश्चात्, मयूरभंज क्षेत्र और कुछ अन्य स्थानों से प्राप्त जैन मूर्तियों की ओर ध्यान दिलाया जा सकता है, जिनमें से कुछ व्यक्तिगत संग्रहों में भी हैं । कुछ समय पूर्व राष्ट्रीय संग्रहालय ने मयूरभंज की एक नौवीं दसवीं शताब्दियों की सुंदर तीर्थंकर - मूर्ति ( चित्र ८८ ) प्राप्त की है। आर० पी० महापात्र ने १२ जनवरी १६७० के उड़िया दैनिक 'मातृभूमि' में कटक जिले के जैपुर उपखण्ड के हटाडीहा से प्राप्त ॠषभनाथ की एक मूर्ति का विवरण प्रकाशित किया है। जैसा कि लेखक का सुझाव है, यह मूर्ति दसवीं शती की है । इस मूर्ति में ऋषभनाथ की सामान्य विशेषताएँ हैं। पृष्ठभाग पर बारह बारह की दो पंक्तियों में चौबीस तीर्थंकरमूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं । चौधरी बाजार, कटक के दिगंबर जैन मंदिर में लगभग पच्चीस जैन मूर्तियाँ हैं, जिनमें से अधिकतर पाषाण की हैं । उनमें से छह को शाहू ने प्रकाशित कराया है । 2 कुछ शिलाफलकों के प्रतिरिक्त ये मूर्तियाँ मुख्यतः ऋषभनाथ, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरों की हैं । उनमें से कुछ दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दियों की हैं, पर कुछ उसके बाद की अर्थात् बारहवीं शती या उससे भी परवर्ती काल की हैं । 1 इस गुफा तथा अन्य गुफाओं के लिए द्रष्टव्य : मित्रा, पूर्वोक्त, 1960, पृ.54 तथा परवर्ती / शय्यासीन बहुरूपिणी के लिए द्रष्टव्य है मित्रा के उक्त लेख के पृ 165 पर पादटिप्पणी सं० 3. 2 शाहू ( एल एन ). जैनिज्म इन उड़ीसा जब यह लेखक 13 अक्तूबर 1972 को इस मंदिर में गया तो उसे दिगंबर मुनि नेमिचन्द्रजी से मिलने का सौभाग्य मिला, जो वहाँ अपना चातुर्मास व्यतीत कर रहे थे. लेखक के कार्य में मुनिजी ने गहरी अभिरुचि ली और मूर्तियों के अध्ययन में पूरा सहयोग दिया. Jain Education International 170 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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