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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई० [ भाग 4 और कल्पवृक्ष हैं । मस्तक पर केश जटाजूट के रूप में प्रस्तुत हैं। पादपीठ के नीचे गजचिह्न अंकित हैं। दास ने इस मूर्ति में एक उल्लेखनीय विशेषता यह बतायी है कि इसमें अजितनाथ को ध्यानासन में दिखाया गया है, जबकि जैन परंपरा के अनुसार उन्हें और संभवनाथ तथा अभिनंदननाथ को खड़गासन में दिखाया जाना चाहिए। शांतिनाथ की मूर्ति भी ध्यानासन में है। चमरधारी और गंधर्व उसी प्रकार प्रस्तुत किये गये हैं. जिस प्रकार अजितनाथ की मूर्ति में। इन दोनों तीर्थंकर-मूर्तियों की केश-सज्जा भी एक जैसी है। शांतिनाथ के पादपीठ के नीचे उनका लांछन हरिण उत्कीर्ण है। चरंपा से प्राप्त अंतिम मूर्ति कायोत्सर्ग-मुद्रा में महावीर की है। इस मूर्ति का मुख टूट-फूट गया है । लांछन सिंह पादपीठ के दोनों कोनों पर उत्कीर्ण हैं। सिंहों के मस्तक पर उत्कीर्ण कमलों पर एक-एक चमरधारी तीर्थकर के दोनों ओर खड़े हैं । उड़ीसा राज्य संग्रहालय के सुरक्षित संग्रह में इस राज्य के विभिन्न भागों से प्राप्त लगभग दमवीं शती की कुछ महत्त्वपूर्ण जैन प्रस्तर-मूर्तियाँ हैं। उनमें बालासोर जिले के जालेश्वर से प्राप्त एक शांतिनाथ की मूर्ति, एक चौमुख और एक सुपार्श्वनाथ की मूर्ति, तिगिरिया से प्राप्त महावीरमूर्ति का एक खण्ड, किसी अज्ञात स्थान से प्राप्त पार्श्वनाथ-मूर्ति और कोरापट से प्राप्त अंविकामूर्ति सम्मिलित है। सुपार्श्वनाथ की मूर्ति में पंच-फणावलि और पार्श्वनाथ की मूर्ति में सप्त-फणावलि परिचय-प्रतीकों के रूप में अंकित किये गये हैं। इस संग्रहालय में बानपुर से प्राप्त कांस्य मूर्तियों का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण समूह भी संगृहीत है। उनमें मुख्य हैं (१) आम्रवृक्ष के नीचे बैठी, गोद में बालक को लिये अंबिका, (२) वृक्ष की शाखा को पकड़कर खड़ी अशोका या मानवी जिसके पासन पर रीछ अंकित है, (३) सप्त-फणावलियुक्त पार्श्वनाथ, (४) सर्प-लांछन से अंकित पादपीठ पर खड़े पार्श्वनाथ और (५) कमल-पूष्पयुक्त पादपीठ पर कायोत्सर्ग-मुद्रा में खड़े आदिनाथ की सुंदर मूर्ति । इस समूह में प्रादिनाथ की मूर्ति उत्कृष्ट कला-कौशल का एक उदाहरण है जिसका सुंदर जटाभार, शांत मुखमुद्रा और शरीर का सौम्य गठन उल्लेखनीय है । उसपर उत्कीर्ण एक अभिलेख के अनुसार वह किसी श्रीकर का उपहार है। वानपुर-समूह की मूर्तियों में जो दक्षतापूर्ण कला-कौशल है उसकी तुलना नालंदा और कृकिहार की मूर्तियों से की जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनपर अबतक किसी ने यथोचित प्रकाश नहीं डाला है। दुर्भाग्य से उनके अच्छे चित्र यहाँ प्रदर्शन के लिए प्राप्त नहीं किये जा सके। मध्यकाल में खण्डगिरि उड़िसा में जैन कला का कदाचित् सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है। यहाँ, मुनियों के आवास के लिए बहुत पहले काटी गयी कुछ गुफाओं को (अध्याय ७) अलग से लाकर 168 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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