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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई. [ भाग 4 बायें हाथ को पकड़े एक बालक और कायोत्सर्ग-मद्रा में दो तीर्थकर-मूर्तियाँ भी हैं जिनके लांछन अब अस्पष्ट हो गये हैं । तथापि उनमें से एक या तो सुविधिनाथ की हो सकती है या अजितनाथ की। सामान्यतः चतुर्मुख या चौमुख कहे जानेवाले दो लघु मंदिर भी यहाँ देखे गये थे। उनमें से जो अधिक सुरक्षित बच गया है, उसके चारों और त्रिपर्णी तोरणाकृतियों के भीतर एक-एक कायोत्सर्ग तीर्थंकरमूर्ति उत्कीर्ण है; उनमें से लांछनों द्वारा पहचाने गये तीन तीर्थंकर हैं -- ऋषभनाथ, चन्द्रप्रभ और शान्तिनाथ, किन्तु चौथे का लांछन स्पष्ट नहीं रह गया है। जैसा कि मित्रा का विचार है, ये एक ही पाषाण से बने मंदिर इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि इनसे उत्तर भारत की रेख-शैली के मंदिरों के स्थापत्यसंबंधी आकार और लक्षणों का परिज्ञान होता है, जिनमें लंबाकार बाड रूपरेखा में पाभाग के लिए निर्मित दो गोटों के साथ एक त्रि-रथ, तथा क्रमशः संकीर्ण होते जानेवाले खुराकार गोटों की पंक्ति से बन जानेवाला पंच-पग शिखर होता है और एक ऐसी उत्तुंग बेलनाकार ग्रीवा होती है, जिसपर एक अनुपातहीन आमलक होता है । आमलक के ऊपर स्तूपाकार शिखर होता है।' अंबिकानगर से उत्तर-पश्चिम में तीन किलोमीटर दूर स्थित परेशनाथ नामक ग्राम में पार्श्वनाथ का (जिनके नाम पर इस ग्राम का नामकरण हुआ) मंदिर था, जिसकी अब केवल चौकी ही शेष बची है। सुघड़ और सौम्य शिल्पांकनयुक्त पार्श्वनाथ की मूर्ति अब खण्ड-खण्ड हो गयी है। परेशनाथ के पास चियादा में भी कुछ तीर्थंकर-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं । अंबिकानगर के उत्तर में ११ किलोमीटर दूर स्थित केंदुना एक समय जैन कला और धर्म का उन्नतिशील केन्द्र रहा, जहाँ अब एक जैन प्रतिष्ठान के भग्नावशेष ही विद्यमान हैं। यह संपूर्ण क्षेत्र पाषाण निर्मित एक मंदिर के वास्तुखण्डों से भरा पड़ा है। यह मंदिर कदाचित् पार्श्वनाथ का था, क्योंकि उसके पास उनकी एक सुंदर मूर्ति पड़ी है, जिसका ऊपर का भाग टूट गया है। पश्चिम बंगाल और बिहार के सीमावर्ती जिलों, विशेषतः धनबाद और पुरुलिया के कई स्थानों पर जैन मंदिर मिले हैं, जिनमें से बहुत से अब भग्न हो चुके हैं। इनमें से ये स्थान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं : चारा, संका, सेनेरा, बोरम, बलरामपुर, पलमा, अरसा, देवली, पाकबीरा, लाठोंडूगरी और डुल्मी । दामोदर, कंगसावती और सुवर्णरेखा नदियों की घाटियों में जैन धर्म का व्यापक विकास हुआ। वहाँ तीर्थंकरों और शासन-देवताओं की अनेक मूर्तियाँ तो मिली ही हैं, अनेक जैन मंदिरों के अवशेष भी विद्यमान हैं। पुरुलिया जिले के देवली ग्राम में एक पंचायतन मंदिर-समूह था (चित्र ८६ क)। इस क्षेत्र से अरनाथ की एक पूर्णाकार मूर्ति प्राप्त हुई थी। देवली के समीप ही जोरापुकुर नामक स्थान में भी अनेक जैन मुर्तियाँ प्राप्त हई थीं। 1 बाबू छोटेलाल जन स्मृति ग्रंथ. 1967. कलकत्ता. पृ 150 तथा परवर्ती पृष्ठों में एस सी मुखर्जी के विचार. 164 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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