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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई०
[ भाग 3 सीमित रहे, जिनमें जैन मुनियों द्वारा वस्त्र-धारण की बात प्रमुख थी; यद्यपि श्वेतांबर जैनागम कल्पसूत्र तथा नन्दिसूत्र (पाँचवीं शती) की स्थविरावलि में वर्णित कई कुलों और गणों का उल्लेख कंकाली-टीला मथुरा से प्राप्त मूर्तियों के अभिलेखों में है; तथापि इस प्रकार अभिलेखांकित सभी कायोत्सर्ग तीर्थंकर प्रतिमाएँ नग्न हैं। पद्मासन-मुद्रावाली मथुरा की कुषाण युगीन प्रतिमाएँ भी तीर्थकर के दिगंबर रूप को प्रदर्शित करती हुई मानी जा सकती हैं, क्योंकि इन प्रतिमाओं पर किसी वस्त्राभरण का संकेत नहीं है, यद्यपि इनमें जननेन्द्रिय को भी स्पष्ट रूप में नहीं दिखाया गया है, जैसा कि परवर्ती दिगंबर मूर्तियों में है।
वस्त्रहीनता तथा अन्य कारणों को लेकर जैन मुनियों में हुआ विवाद उनकी मूर्ति-पूजा की पद्धति में भी अभिव्यक्त होता था। जब श्वेतांबर-दिगंबर मतभेद अधिक तीव्र हो उठे तो जैनागम से ऐसे सभी प्रसंगों का, जो दोनों संप्रदायों में से किसी के लिए भी सुविधाजनक नहीं थे, लोप कर दिया गया । श्वेतांबरों ने द्वितीय वलभि परिषद् में जैनागम के नये संस्करण में और दिगंबरों ने सौराष्ट्र में भूतबली की रचनाओं में ऐसे सभी प्रसंगों का लोप कर दिया।
ऐसा प्रतीत होता है कि द्वितीय वलभि परिषद् के पूर्व जैन तीर्थंकरों की समस्त प्रतिमाएँ वस्त्रहीन उत्कीर्ण की गयी थीं। चंद्रगुप्त-द्वितीय के समय में उत्कीर्ण राजगिर के मंदिर में स्थित पद्मासन-मुद्रा में नेमिनाथ की सुंदर प्रतिमा भी वस्त्रहीन प्रतीत होती है। उसी मंदिर की कायोत्सर्ग प्रतिमाएं भी ऐसी ही स्थिति में हैं। धोती धारण किये हुए किसी तीर्थकर की प्राचीनतम मूर्ति अकोटा (गुजरात) से प्राप्त ऋषभनाथ की खड्गासन कांस्य प्रतिमा है (चित्र ६५ क और ६७ ख) । लगभग ७६ सें. मी. ऊँची यह अत्यंत सुंदर कांस्य प्रतिमा है, पर दुर्भाग्य से यह आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त है तथा इसका पादपीठ नष्ट हो चुका है। फिर भी इसकी रचना सुंदर है तथा विशुद्ध गुप्तकालीन शैली में है, जिसकी तुलना सुलतानगंज से प्राप्त उत्कृष्टतापूर्वक ढाली हुई बुद्ध की ताम्र-प्रतिमा से की जा सकती है । अत्यधिक क्षतिग्रस्त होने पर भी यह मूर्ति उत्तर भारत में प्राप्त सुंदरतम कांस्य प्रतिमाओं में से एक है। रजतमण्डित अर्धनिमीलित नेत्र तीर्थकर की आनंदमय मुद्रा का संकेत देते हैं। निचला अधर, जो महापुरुष-लक्षण के अनुसार अरुणाभ होना चाहिए, ताम्र-मण्डित है। तीन धारियों से युक्त अत्यधिक क्षतिग्रस्त ग्रीवा शंखाकार (कंबु-ग्रीव) है, जिसे गुप्त-काल में शरीर-सौंदर्य का प्रतीक माना जाता था। सुघड़ता से रचित धड़ के विशाल तथा सुडौल स्कंध तथा क्षीण कटि (तनुवत्त-मध्य) भी गुप्त-शैली के अनुरूप हैं। स्कंधों तक लटकती केशराशि की सहायता से प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ (आदिनाथ) के रूप में इसकी पहचान संभव हुई है । वराहमिहिर के उल्लेखानुसार इन्हें आजानुबाह,
1 शाह (यू पी). एज ऑफ डिफ सिएशन ऑफ श्वेतांबर एण्ड दिगंबर जैन इमेजेज. बुलेटिन प्रॉफ प्रिंस प्रॉफ वेल्स
म्यूजियम, बंबई. 1, 1; 1950-51; 30 तथा परवर्ती. 2 [ अध्याय 11, चित्र 53.-संपादक ]
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