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वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई०
[ भाग 3
समूह की श्राद्य गुप्तकालीन प्रतिमाएँ हैं । मथुरा शैली से उनकी सादृश्यता स्पष्ट परिलक्षित है, किन्तु जहाँ ब्रून के रेखाचित्र २० ( अनुकृति ८ ) की प्रतिमा का रचनाकाल पाँचवीं शताब्दी हो सकता है, वहाँ रेखाचित्र २१ ( अनुकृति ६) की प्रतिमा वस्तुतः परवर्ती काल की है-जैसा कि इसके उत्तरीय के अंकन तथा चमरधारी सेवकों की प्राकृतियों की संरचना से स्पष्ट है । यह प्रतिमा छठी शताब्दी के अंतिम काल की हो सकती है । यद्यपि इस तीर्थंकर - मूर्ति में आद्य गुप्तकालीन मथुरा शैली की विशेषताएँ हैं, तथापि, इसे प्राद्य गुप्तकालीन निर्धारित करना कठिन है ।
ग्वालियर के दो शैलोत्कीर्ण शिल्पांकन ( चित्र ६० ख ) भी इस काल के अंत की ही रचनाएँ प्रतीत होती हैं। इनमें से एक प्रतिमा में तीर्थंकर को कायोत्सर्ग-मुद्रा में तथा दूसरी में पद्मासनस्थ ध्यान - मुद्रा में अंकित किया गया है । पद्मासन मुद्रावाले तीर्थंकर के पार्श्व में अंकित सेवक पूर्ण विकसित कमलपुष्पों पर खड़े हुए हैं। इन कमलपुष्पों को बौने (वामन) लोगों ने थाम रखा है, जो स्वयं मोटे कमलनाल-जैसे दिखाई देते हैं । ऐसा ही, लम्बी नालयुक्त कमलपुष्पों पर खड़े यक्षों का अंकन मथुरा संग्रहालय की ( बी ६ तथा बी ७ क्रमांकित) दो सुंदर मूर्तियों में भी पाया जाता है । खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमा के मूर्तन की तुलना राजगिर की वैभार पहाड़ी स्थित दो खड्गासन प्रतिमानों के मूर्तन से की जा सकती है। ग्वालियर की इन दोनों तीर्थंकर - प्रतिमाओं में गुप्त - शैली का अनुकरण किया गया है । सेवक अलंकृत टोपी जैसे मुकुट तथा गले में एकावली धारण किये हुए हैं । तीर्थंकरों का परिकर परवर्ती गुप्तकालीन प्रतिमाओं की भाँति सुसज्जित न होकर यहाँ भी
सादा रहा ।
1 विलियम्स, पूर्वोक्त, पू 380, नोट 11.
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शाह, पूर्वोक्त, चित्र 25 तथा 27 [ इनकी चर्चा अध्याय 10 में भी की जा चुकी है और इनमें से एक का चित्र भी (चित्र 46 ) दिया गया है.
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संपादक ].
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उमाकांत प्रेमानंद शाह
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