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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई० [ भाग 3 क्षमण और उनके शिष्य तथा चंद्र-क्षमाचार्य-क्षमण-श्रमण, पाणिपात्रिक (अपनी हथेलियों को ही भिक्षा तथा जलपात्र के रूप में उपयोग करनेवाले) के पट्ट शिष्य प्राचार्य सर्पसेन क्षमण की प्रेरणा से कराया था। आचार्य चंद्र निश्चय ही दिगंबर थे और वह संभवत: यापनीय संघ से संबद्ध थे, क्योंकि इतना तो हमें ज्ञात ही है कि दिगंबर भगवती-आराधना के रचयिता शिवार्य ने स्वयं को पाणिदलभोइ कहा है, जिसका तात्पर्य हाथ पर रखकर भोजन करनेवाले जैन साधु से है । सर्पसेन नागसेन नाम का ही दूसरा रूप रहा होगा, क्योंकि पर्यायवाची नामों का प्रचलन प्राचीन साहित्य में भी अपरिचित नहीं है । रामगुप्त को यहाँ महाराजाधिराज कहा गया है, जिससे स्पष्ट है कि वह कोई छोटा-सा सामंत नहीं था। किसी रामगुप्त द्वारा प्रचालित ताम्रमुद्राएँ भी हमें विदिशा क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। इन तीनों अभिलेखों की पुरालिपि में उल्लिखित महाराजाधिराज रामगुप्त चौथी शताब्दी का गुप्तशासक रामगुप्त ही संभावित है, जिसका उल्लेख विशाखदत्त ने अपने देवी-चंद्रगुप्त (नाटक) में चंद्रगुप्त-द्वितीय के बड़े भाई के रूप में किया है। पादपीठों के केन्द्र में धर्म-चक्र का ही अंकन है, उसके पार्श्व में दोनों ओर हरिणों का अंकन नहीं है। चित्र ५८ में धर्म-चक्र का अंकन पादपीठ के केन्द्र में है। पादपीठों पर तीर्थंकरों का कोई लांछन अर्थात् परिचय-चिह्न अंकित नहीं है। ग्रीवा में एकावली धारण किये हुए अनुचरों की आकृतियों का अंकन कुशलतापूर्ण है। चित्र ५७ क में, दो अनुचर एक विशेष प्रकार का कुषाणकालीन शिरोभूषण पहने हुए हैं, जिसके केन्द्र में चूड़ामणि अंकित है, जबकि चित्र ५८ में एक अनुचर तिकोनी टोपी पहने है, जो शककालीन टोपियों से मिलती-जुलती है । ये प्रतिमाएं, जिनका रचनाकाल रामगुप्त के अल्प शासनकाल के अंतर्गत ३७० ईसवी के लगभग निर्धारित किया जा सकता है, इस तथ्य का निश्चित साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं कि इस काल में तीर्थंकरों के विभिन्न लांछन (परिचय-चिह्न), जो इस काल में विकसित भले ही हो गये हों, विचाराधीन अवधि की तीर्थकर-प्रतिमाओं में कोई स्थान प्राप्त नहीं कर पाये थे। विदिशा के निकट उदयगिरि की एक गुफा (गुफा २०) में गुप्त-संवत् १०६ (कुमारगुप्त-प्रथम का शासनकाल) का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसमें पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा के निर्माण का 1 धर्म-चक्र के पार्श्व में दोनों ओर हरिणों का अंकन न तो मथुरा की कुषाणकालीन जैन प्रतिमाओं में पाया जाता है और न चन्द्रगुप्तकालीन राजगिर में स्थापित नेमिनाथ की प्रतिमा के पादपीठ पर (द्रष्टव्य, चित्र 53). प्रतीत होता है कि बौद्ध प्रभाव के कारण यह कला-प्रतीक किसी परवर्ती अवधि में अपनाया गया है. 2 गुप्तकालीन अभिलेखांकित जैन मूर्तियों के लिए द्रष्टव्य : फ्लीट (जे एफ). इंस्क्रिप्शन्स अॉफ दि अर्ली गुप्ता किंग्स कोरपस इंस्क्रिशिमोनम इण्डिकारम. 3. 1888. कलकत्ता. पृ 258 तथा परवर्ती. / बनर्जी (राखालदास). 134 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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