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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई०
[ भाग 3 इसके विपरीत उपयुक्त (पृ १२६) वैभार पहाड़ी पर नेमिनाथ की प्रतिमावाली कोठरी में खड़गासन-मुद्रा में, जो तीन जिन-मूर्तियाँ हैं, वे किसी अन्य कला-परंपरा की मालूम पड़ती हैं। इनमें से एक प्रतिमा पर कमल के आसपास शंखों का चित्रण है, जो इसका नेमिनाथ की मूर्ति होना सूचित करता है। दूसरी प्रतिमा भी यद्यपि पहली से कुछ छोटी है और उसपर अतिरिक्त विवरण इतने स्पष्ट नहीं हैं फिर भी वह पहली से मिलती-जुलती ही है। ये दो प्रतिमाएँ अण्डाकार मुंह, सुव्यवस्थित चुंघराले केश, कायोत्सर्ग-मुद्रा और अपनी पूरी गोलाई में भलीभांति अलंकृत भामण्डल का प्रारूप प्रस्तुत करती हैं। इन प्रतिमाओं का परिकर तीर्थंकर के दोनों ओर चमर तथा मालाधारी आकृतियों से युक्त है। इस वर्ग की तीसरी प्रतिमा सबसे छोटी और साधारण है । इसमें तीन परतों वाले उलटे कमल-छत्र के नीचे तीर्थकर को कायोत्सर्ग-मुद्रा में दिखाया गया है और उनके साथ हैं चौरी-वाहक । यह प्रतिमा क्षीण हो गयी है और उसके सूक्ष्म विवरण लुप्त हो गये हैं । इसी वर्ग और शैली की एक और प्रतिमा इस समय पटना स्थित गोपीकृष्ण कनोडिया संग्रह में है। यह मूर्ति पार्श्वनाथ की है और जहाँ तक परिकर के विवरणों का प्रश्न है, इसकी शैली विशेष रूप से गुप्तकालीन है। फिर भी, चेहरे का अंकन शेष आकृति से शैली में भिन्न है। हो सकता है कि कालांतर में इस प्रतिमा को फिर से काटा-छाँटा गया हो, जिसके कारण यह अंतर पा गया है।
कांस्य मूर्तियां
उक्त प्रतिमाओं के पश्चात् चौसा से प्राप्त धातु की छह प्रतिमाएँ आती हैं, जो अब पटना संग्रहालय में हैं। ये सहज प्राकर्षण और अभिव्यक्ति की उपयुक्तता दर्शाती हैं। एक वर्ग के रूप में यह पश्चिम भारत में प्राप्त मूर्तियों से भिन्न हैं। इनमें से दो (चित्र ५४) आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की हैं जैसा कि उनके परिचय-चिह्न (अर्ध चन्द्र) से स्पष्ट है, जो शिरश्चक्र के ऊपर मध्य में दिखाया गया है। अन्य दो प्रतिमाएँ (चित्र ५५ क और ५६) प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की हैं, जिनकी पहचान उनके कंधों तक आये बालों के कारण हो सकी है। शेष दो (एक का चित्र दिया गया है, चित्र ५५ ख) क्षीण हो जाने और इस कारण विवरणों का पता नहीं लग पाने से पहचानी नहीं जा सकी हैं। सभी तीर्थंकरों को पादपीठ पर ध्यान-मुद्रा में पासीन अंकित किया गया है और सभी के वक्ष के मध्य में श्रीवत्स-चिह्न तथा पीछे की ओर शिरश्चक्र है । जिस मूर्ति का शिरश्चक्र अब लुप्त हो गया है, उसके पीछे की चूल से ज्ञात होता है कि वहाँ पहले शिरश्चक्र था। ऋषभदेव की प्रतिमाएँ
1 ये प्रतिमाएं सामान्यतः गुप्त-काल की बतायी जाती हैं । तुलनीय : चंदा, पूर्वोक्त, पृ 126./ कुरैशी तथा घोष,
पूर्वोक्त, पृ 26. / शाह, पूर्वोक्त, पृ 14./ब्रून (पूर्वोक्त पृ 222-23) इनमें से एक को मध्यकालीन मूर्तियों के वर्ग में रखते हैं। चौड़ा बनाया हुआ घड़, तीखे संधिस्थल और एक स्थिति से दूसरी स्थिति तक कम सूक्ष्म परिवर्तन यह सूचित करते हैं कि इन प्रतिमानों में किसी सीमा तक उन शैलीगत विशेषताओं के पाद्य रूप विद्यमा न
हैं, जो संक्रमणकालीन कला पर छाये हुए थे। 2 पश्चिम भारतीय कांस्य मूर्तियों के लिए द्रष्टव्य : शाह, पूर्वोक्त, 1955, पृ 16. / अध्याय 13 भी.
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