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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 से 600 ई०
[ भाग 3 जे-२६)। इनके अतिरिक्त कुषाणकालीन तीर्थंकर प्रतिमानों के वक्ष पर श्रीवत्स का अंकन लोकप्रिय था।
गुप्त-काल में पवित्र प्रतीकों के अंकन में निम्नलिखित परिवर्तन आये :
(१) उँगलियों के सिरों से प्रतीकों के सूक्ष्मांकन लुप्त हो गये।
(२) खुली हथेली पर चक्र का अंकन यद्यपि कुछ समय तक चलता रहा (द्रष्टव्य, पु० सं० म० : बी-१), तदपि परवर्ती वर्षों में यह या तो छोड़ दिया गया (द्रष्टव्य, पु० सं० म०: बी-७, चित्र ४६) या उसे व्यर्थ समझा गया।
(३) उक्त स्थान पर, सामुद्रिक शास्त्र की महत्त्वपूर्ण तीन स्वाभाविक रेखाओं अर्थात् मस्तिष्क, हृदय और जीवन-रेखाओं के अंकन का प्राधान्य हो गया। मणिबंध की रेखामों का अंकन पहले की भाँति होता रहा ।
(४) वक्ष पर श्रीवत्स-चिह्न का अंकन पूरे युग में होता रहा । 'एक मछली के दोनों ओर दो सर्प' के चित्रण का पुराना रूप तब अत्यंत अलंकृत हो गया था । कुषाणकालीन चित्रण की तुलना में गुप्त-काल में 'श्रीवत्स' का विकास रेखा चित्र ८ में दिखाया गया है । प्रसंगवश, यह कहना भी आवश्यक है कि यह चिह्न केवल मथुरा से प्राप्त गुप्तकालीन तीर्थंकर-प्रतिमाओं के वक्ष पर ही दृष्टिगोचर होता है। अन्य स्थानों में इसका लगभग अभाव ही है।
छत्र और लांछन का प्रभाव
इस लेख को समाप्त करने से पहले, कूछ वस्तुओं के अभाव पर ध्यान देना आवश्यक है। इनमें प्रथम स्थान छत्र का है। जो भी गुप्तकालीन तीर्थंकर-प्रतिमाएँ इस समय उपलब्ध हैं, उनके सिर पर छत्र नहीं है। छत्र-त्रय और छत्रावली के चित्रण का चलन आगे चलकर हुआ।
यही बात लांछनों के संबंध में भी सही है। चौबीस तीर्थंकरों में प्रत्येक का एक पारंपरिक चिह्न होता है जिसे संबंधित तीर्थंकर का लांछन कहा जाता है। तीर्थंकर-प्रतिमाएँ लगभग एक-सी प्रतीत होती हैं, कदाचित् इस कारण यह आवश्यक समझा गया कि उनमें भेद कर पाने के लिए प्रत्येक का एक चिह्न निर्धारित किया जाये । यह कोई बहुत पुरानी परिपाटी प्रतीत नहीं होती। मथुरा से
1 हिन्दी में इस शब्द के स्थान पर चिन्ह शब्द का प्रयोग अधिक है. लांछन ने अब दूसरा ही अर्थ ग्रहण कर
लिया है.
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