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________________ अध्याय 10 ] मथुरा पादपीठ आसन के नीचे पादपीठ होता है। पादपीठ पर धर्म-चक्र अंकित करने की प्रथा कुषाणयुग से प्रचलित थी, जो या तो धरातल पर या किसी प्रकार के स्तंभ पर बनाया जाता था और उसके दोनों ओर प्रायः एक पंक्ति में खड़े हुए भक्त नर-नारी दिखाये जाते थे। पादपीठ के दोनों सिरों पर सिंह अंकित किये जाते थे। गुप्त-काल में यह संपूर्ण कला-प्रतीक सामान्य रूप से वही रहा, किन्तु उसमें निम्नलिखित परिवर्तन दिखाई देते हैं : (१) धर्म-चक्र का आधार-स्तंभ बहुत ही कम दिखाई देता है (उदाहरण के लिए, पु० सं० म० : बी-६) । सामान्यतः धर्म-चक्र का आधार बहुत ही हलका है (पु० सं० म० : १२.२६८, चित्र ४७ ख) या वह सीधा धरातल पर ही अवस्थित प्रतीत होता है (रा० सं० ल० : जे-११८, चित्र ४४, जे-१२१, चित्र ४७ क)। संभवतः यह व्यवस्था इस लोकप्रिय धारणा को सूचित करती है कि दिग्विजय के पश्चात् चक्र-रत्न तीर्थंकर के पवित्र आसन या चरणों के नीचे विश्राम कर रहा है। (२) धर्म-चक्र का साधारणत: मुखांकन किया जाता है (रा० सं० ल० : जे-१२१, चित्र ४७) । यद्यपि मूर्तिकार ने कभी-कभी उसका पार्श्व-चित्र भी देना ठीक समझा (पु० सं० म० : १८.१३८८, बी-७, चित्र ४६) । प्रायः इस चक्र में सोलह अरे होते हैं, किन्तु इस विषय में कोई एकरूपता नहीं है । जब इस चक्र का मुखांकन किया जाता है तब वह स्वाभाविक रूप में दिखाई देता है, किन्तु उसका पार्श्व-चित्रांकन अधिक अलंकृत होता है। कभी-कभी इस चक्र के मध्यभाग से एक डोरी गुजरती हुई दिखाई देती है (पु० सं० म०: १८.१३८८)। इस डोरी के कारण चक्र एक प्रक्षेपास्त्र के समान प्रतीत होता हैं, जिसे चलाने के लिए डोरी आवश्यक थी, यद्यपि धर्म-चक्र तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित धर्मनियमों का चक्र था न कि कोई आयुध । गुप्त-काल के अंत तक, जैनों ने भी उस प्रसिद्ध 'हरिण और चक्र' कला-प्रतीक (पु० सं० म० : बी-७५) को अपना लिया था जो बौद्धों में लोकप्रिय और उनके लिए सार्थक था। (३) गुप्त-युग में पवित्र चक्र के दोनों ओर भक्तों की पंक्तियों का अंकन, जिसका प्रारंभ कदाचित् गांधार-कला में हुअा था, धीरे-धीरे लुप्त हो गया । गुप्तकालीन अधिकांश मूर्तियों में या तो वह है ही नहीं (रा० सं० ल० : जे-११६; पु० सं० म० : १२.२६८, चित्र ४७ ख) या प्रतीकात्मक रूप में उसका चित्रण इस प्रकार हुआ है कि दो व्यक्ति हाथ जोड़कर घुटनों के बल बैठे हैं (रा० सं० ल० : जे-११८, चित्र ४४)। (४) कुछ पादपीठों पर एक नयी विशेषता प्रमुख रूप से उभरकर आयी है; वह है परमेष्ठियों का चित्रण । कहाऊँ शिलालेख में उन्हें पंचेन्द्र कहा गया है और उनकी पहचान आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ तथा महावीर के रूप में की जा सकती है। एक ही पादपीठ पर 1 देव (एस बी). हिस्ट्री प्रॉफ जैन मोनकिज्म. 1956. पूना. पृ 103. 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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