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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई० [ भाग 2 है, जिससे यह ज्ञात होता है कि कालांतर में विदिशा की मूल प्रतिमा की पूजा भैल्लस्वामी के रूप में होने लगी और वीतभयपत्तन वाली अनुकृति एक रेतीली आँधी में नगर के साथ ही लुप्त हो गयी । उद्दायण ने उसे एक मंदिर में प्रतिष्ठित किया था और राजकीय घोषणापत्र प्रसारित कर उसकी पूजा हेतु दान दिया था। हेमचन्द्र के अनुसार चौलुक्य नरेश कुमारपाल ने, जिसका राज्य पश्चिम में सिन्ध तक, उत्तर में जालौर और राजस्थान के कुछ अन्य भागों तक और प्रायः सम्पूर्ण गुजरात तक फैला हुआ था, सौवीर की राजधानी में विशेष अधिकारी भेजे थे । उन्होंने उद्दायण द्वारा प्रसारित किये गये घोषणापत्रों सहित काष्ठप्रतिमा को खोद निकाला। हेमचन्द्र आगे वर्णन करते हैं कि ये पत्तन लाये गये और कुमारपाल द्वारा, जिसका जैन धर्म के प्रति आकर्षण और संरक्षकत्व सर्वविदित है, नवनिर्मित मंदिर में मूर्ति की स्थापना की गयी। यदि यह समकालीन वृत्तांत सही है और यह विश्वास करना कठिन है कि हेमचन्द्र जैसी प्रतिष्ठावाला व्यक्ति इसे गढ़ने का साहस करेगा या केवल जनश्रुति के आधार पर ही इस प्रकार का वर्णन करेगा तो हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि महावीर के जीवनकाल में ही जैन कला और जिन-पूजा का प्रसार न केवल मालवा-अवंति प्रदेशों में हुआ अपितु पश्चिम में सिन्धु-सौवीर तक हो चुका था । जैन आगम ग्रंथ भगवती-सूत्र. १३-६-१६१ के अनुसार राजा उद्दायण को, जो भगवान महावीर के दर्शन करना चाहता था, धर्मोपदेश देने के लिए महावीर वीतभयत्तन आये थे । कायोत्सर्ग मुद्रा में पार्श्वनाथ की एक अत्यंत प्राचीन कांस्य प्रतिमा (चित्र ३७) प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय, बम्बई, के संग्रह में है। इसका दायाँ हाथ और शीर्ष के ऊपर फणावली का भाग खण्डित है । इसके पादपीठ का पता नहीं है और दुर्भाग्य से इसका मूल प्राप्ति-स्थान भी ज्ञात नहीं है, शैली में यह मोहन-जो-दड़ो से प्राप्त एक मृणमूर्ति के बहुत कुछ समान है। इसके अंग लम्बे और पतले हैं जिनकी तुलना मोहन-जो-दड़ो से प्राप्त नर्तकी की मूर्ति से की जा सकती है। धड़ , विशेषतः तोंद और 1 त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित. पर्व 10. सर्ग 11. विशेष रूप से श्लोक 604 तथा परवर्ती. 2 वही, सर्ग 11, श्लोक 623 तथा परवर्ती. 3 वही, सर्ग 12, श्लोक 36-93. 4 जैन, पूर्वोक्त, पु 309./ बृहत्कल्पभाष्य. 2. पृ 314./ वही, 4, पृ 1073 तथा परवर्ती. / वही, गाथा 912-913. 5 शाह (यूपी). अर्ली ब्रोन्ज ऑफ पार्श्वनाथ. बुलेटिन प्रॉफ द प्रिन्स ऑफ वेल्स म्युजियम, बम्बई. 3; 1952 53; 63-65 और चित्र. 6 मार्शल (जॉन). मोहन-जो-दड़ो एण्ड दि इण्डस सिविलाइजेशन. भाग 3.1931. लन्दन. चित्र 95, उपक्रमांक 26 27./ मैकके. फर्वर एक्सकेवेशन्स फ्रॉम मोहन-जो-दड़ो. भाग 2. 1938. नई दिल्ली. चित्र 82, उपक्रमांक 6,10,11, और चित्र 75. उपक्रमांक 1. 21. 7 मार्शल, पूर्वोक्त. चि 94, उपक्रमांक 6-8. इस कांस्य प्रतिमा के साथ कुछ मृणमूर्तियों की तुलना के लिए द्रष्टव्य : गोर्डन (डी एच). अर्ली टेराकोटाज. जर्नल मॉफ दि इण्डियन सोसायटी ऑफ पार्ट. 11; 1943. 90 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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