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अध्याय 7]
पूर्व भारत
पुरातनिक लक्षण--जैसे अग्रभाग-विन्यास, दृश्यात्मकता का अभाव, मूर्यंकन की प्रादिम परिकल्पना
आदि-अब इनमें नहीं दिखाई देते। ये शिल्पांकन प्राकृतियों की विभिन्न स्थितियों-अग्र, पृष्ठ और पार्श्व-के दक्षतापूर्ण अंकन में कलाकार के प्रशंसनीय कौशल को व्यक्त करते हैं। प्राकृतियों के मुख पूर्ण या तीन चौथाई या फिर अर्धमुद्राओं में बनाये गये हैं। प्राकृतियों की मुद्राएँ सामान्यतः सरल और स्वाभाविक हैं। उनकी चेष्टाएँ सजीव और मनोभाव भलीभाँति व्यक्त किये गये हैं। उनकी संरचना भी सामान्यतः संगत और प्रभावशाली है ; विभिन्न आकृतियाँ एक दूसरे से संबंधित हैं। शिल्पांकनों में परिपक्व गांभीर्य है, वे रूप की सुघढ़ता और स्वाभाविक प्राकृतिरचना का पर्याप्त प्रदर्शन करते हैं । स्त्री-पुरुषों की सुकुमार प्राकृतियों से सौम्य रूपरेखा का अंकन स्पष्ट झलकता है।
अन्य गुफाओं के, और एक सीमा तक गुफा सं०१ के निचले तल के भी, शिल्पांकन इस स्तर के नहीं हैं । वे सजीव और सुघड़ मूर्तन की दृष्टि से अपेक्षाकृत अपरिष्कृत तथा निम्न स्तर के हैं। प्राकृतियाँ कम सजीव, प्रतिरूपण अमाजित और उनका वर्ग-संयोजन कम संगत है। कलात्मक उपलब्धियों में यह असमानता उस समय प्रत्यक्ष हो जाती है जब गुफा सं० १० (गणेशगुम्फा) के अपहरण-दृश्य (चित्र ३३ ख) की तुलना गुफा सं० १ (रानीगुम्फा) के ऊपरी तल के दृश्य (चित्र ३३ ख) से की जाती है। यह अंतर या तो कलाकारों की कुशलता में अंतर के कारण या उस समयांतराल के कारण हो सकता है जिसने इन कलाकारों को मूर्तिकला-कौशल तथा संरचनाओं में अनुभव द्वारा दक्षता प्राप्त करने का अवसर दिया, यद्यपि समय का यह अंतराल बहुत लंबा नहीं रहा होगा।
देबला मित्रा
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