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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 300 ई० पू० से 300 ई. [ भाग 2 जिस प्रकार बौद्धों की दान-प्रवृत्ति ने सामान्यतः स्तूपों का रूप ग्रहण किया, मथुरा की तत्कालीन जैनों की दान-प्रवृत्ति प्रायाग-पटों के रूप में रूपायित हुई। पुण्य प्राप्त करने के उद्देश्य से धर्मनिष्ठ समर्पणों के रूप में वेदियों पर इन शिलापट्टों का प्रतिष्ठापन करने की प्रथा संभवत: उस समय अप्रचलित हो गयी जब स्तूपों के चारों पाश्वों में, मंदिरों तथा पवित्र स्थानों में लघ पीठिकानों या पादपीठों पर तीर्थंकरों की प्रतिष्ठापना करने की प्रथा व्यापक रूप से प्रचलित हो गयी। तीर्थकर मूर्तियाँ तथा अन्य प्रतिमाएँ मथुरा ने, जो कला का एक बहुसर्जक केन्द्र रहा है, जैन प्रतिमा-विज्ञान के विकास में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। तीर्थंकरों के जीवन से संबंधित घटनाओं के बहुत कम शिल्पांकन हुए हैं, जैसे कि नीलांजना का नृत्य, जिसे देखकर ऋषभदेव को संसार से वैराग्य हा; और जैसा कि कल्प-सूत्र में बताया गया है, हरिनगमेषी का चित्रण, जिसने महावीर के भ्रण को ब्राह्मणी देवानन्दा के गर्भ से निकालकर क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में स्थापित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होता है कि मथुरा के कलाकारों एवं उनके ग्राहकों को अन्य किसी वस्तु की अपेक्षा तीर्थंकर-मूर्तियों ने अधिक आकर्षित किया, परिणामस्वरूप प्रथम शताब्दी ईसवी से लेकर गुप्त-काल तक मथुरा की शिल्पशाला में भारी संख्या में मूर्तियों का निर्माण हुआ। आद्य तीर्थंकर-मूर्तियाँ आयाग-पटों पर उत्कीर्ण हैं, जिन्हें बूलर ने कनिष्क-पूर्व युग का ठहराया है। इन मूर्तियों में शीर्ष पर छत्र सहित दिगंबर तीर्थंकर को पद्मासन मुद्रा में अंकित किया गया है। लांछन (परिचय-चिह्न) अंकित नहीं किये गये हैं। परिणामतः शीर्ष पर सप्त-फण-नाग-छत्र के द्वारा केवल पार्श्वनाथ को ही पहचाना जा सकता है। कुषाण युग की मूर्तियाँ भारी संख्या में उपलब्ध हैं, जिनमें बहुत-सी अभिलेखांकित हैं और अनेक पर कुषाण-शासकों की तिथियाँ अंकित हैं, जो कनिष्क शासनकाल के वर्ष ५ से लेकर वासुदेव शासनकाल के वर्ष १८ तक की हैं। परवती काल के अलंकरण आदि से रहित, इस युग की तीर्थंकरमूर्तियों की रचना प्रायः समान है, क्योंकि भेद प्रदर्शित करनेवाले लांछनों का प्रयोग भी तबतक विकसित नहीं हुआ था। परिणामस्वरूप समर्पणात्मक शिलालेखों में तीर्थंकरों के नामों के अभाव में, 1 शाह, पूर्वोक्त, पृ 11. / बुलेटिन ऑफ म्यूजियम्स एण्ड प्रापॉलॉजी इन यू पी. 9; 1972, जून; 47-48. 2 तथापि, डॉ. ज्योति प्रसाद जैन का मत (व्यक्तिगत पत्र-व्यवहार में) यह है कि ये शिल्पांकन कंस के कारागार में रह रही देवकी के नवजात शिशुओं के भद्रिलपुर के एक व्यापारी सुदृष्ट की पत्नी अलका के संरक्षण में स्थानांतरण की ओर संकेत करते हैं. 3 एक मूर्ति पर वर्ष 4 अंकित है (ल्यूडर्स, पूर्वोक्त, क्रमांक 16) जो अनुमानत: कुषाण-शासकों द्वारा प्रयुक्त सवत् का वर्ष है. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001958
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size21 MB
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